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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६२ दे० चो० बा० थर्नु स्वरूप छे, जीवादि षट् द्रव्य छे, तेमध्ये पंचास्तिकाय ते परमार्थे द्रव्य छे, तथा छठो काल ते उपचारद्रव्य छे. ए चर्चा, तत्वार्थ, विशेषावश्यक तथा धर्मसंग्रहणी मध्येयी जोवी. तेमध्ये एक एक द्रव्यने विषे अनंता गुण, अनंता पर्याय छे, ते अनेकता जाणवी, अने एक द्रव्यने विषे एक समये स्यानित्यं स्यादनित्यं, स्यात् एकं, स्यात् अनेकं, स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् मिन्नं, स्यात् अभिन्नं, स्यात् वक्तव्यं, स्यात् अवक्तव्यं. ए सर्व स्वभाव, समकाले वर्त्तता पामीयें छीये, एटला धर्म समकाले जेमांहें वरते, ते धर्मनी अनंत प्रवृत्तिने स्याद्रावाद कहिये ।। स्यात् इति पदं अनेकांतोद्योतकं एहवी स्याद्वादमयी जे आत्मानी गुणपर्यायरूप सत्ता छे, तेना रसी कहेतां रसीया छो, एटले स्याद्रादमयी आत्मसत्ता, तेहना भोगी छो, तथा अमल कहेतां कर्ममल रहित छो, अखंड कहेतां किवारें खंड न पामो, अनुप कहेतां जेहनी उपमा नयी, एहवा प्रभु देखीने माहारे लाभ थयो ॥ ६ ॥ आरोपित सुख भ्रम टल्यो रे, भास्यो अव्यावाध ॥ समस्यो अभिलाषीपणोरे, का साधन साध्य ॥अ०७ अर्थः--एहवा प्रभुजी आत्मानंद भोगी, आत्मस्वरूप रमणी, तत्त्वविलासी, तेमनें जोइने माहरे अनादि काल- इंद्रियसखने विषे जे सुखनुं भासन ते आरोपितसुखभ्रम हतो, ते टल्यो, अने अव्याबाध, आत्मिकआनंद सुख ते भास्यु. जिहां सुधि विषय सुख उपर सुखबुद्धि हती, तिहां सुधि विषय सुखनो अभिलाष हतो, ते हवे तो सर्व विषय रहित, अव्याचाच सुखी श्री प्रभुजी दीटा, तेथी ते भव्य जीवने पण १६ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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