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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दे० चो० बा० सारमा आठ कर्मरूप उपाधिन उपादान कारण हतो, हवे शुद्ध स्वरूपी, निःकर्मा, तत्त्वदेव देखीने पोताना शुद्ध स्वरूपy उपादान कारण थयो, एटला काल सुधि ए आत्मा आठ कर्म रूप कार्यनो कर्ता हतो, हवे परमदेवनी श्रमा पामीने संवर निर्जरा रूप कार्यनो कर्ता थयो; माटे हे परमेश्वर ! हे जगदाधार ! हे दीनबंधो ! तुमारे अनुयायी मारी चेतना प्रवर्ती तेथी कारण तथा कार्य इत्यादि बीजी पण अनंती आत्मशक्ति, ते सर्व समरवा लागी, एटले सर्व आत्मानी शक्ते आत्मभाव ग्रह्यो, अने परभाव तजवा मांड्यो॥८॥ इति अष्टम गाथार्थः ।। श्रद्धा भासन रमणता रे, दानादिक परिणाम ॥ सकल थया सत्ता रसी रे, जिनवर दरिसण पाम ॥अ०॥९॥ अर्थः---एटला काल सुधि उदैक पुण्य प्रकृति तेनो विपाक जे शातावेदनी प्रमुख गुणरोधक तत्त्वविमुख तेना स्वाद, जीवने मीटा लागता हता, तेथी ते पुण्यना उदयने सुख मानतो हतो, ते हये एवी श्रद्धा थइ जे अव्याबाध निःकर्म पद, तेहीज मारु साध्य छे, तथा जे वस्तुनी यथार्थतानुं ज्ञान थयु. ते भासन केतां जाणपणं ते पण समयं, अने रमण जे पुद्गलना वर्णादिकमां हवं, ते सर्वस्वरूपy रमण थयु, तथा १ दान, २ लाभ, ३ भोग, ४ उपभोग, ५ वीर्य. ए पांचनो क्षयोपशम ते, एटला काल सुधि दान पुद्गलनो हतो, लाभ पण पुद्गलनो मानतो हतो, तथा भोगपणण पुद्गलनो, उपभोग पण संसारमा पुद्गलनो हतो, अने वीर्य पण बालवीर्य, ते पुद्गल For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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