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श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ८०५
॥ अथ विंशति श्री अजितवीर्यजिन स्तवनम् ॥
॥ अजितवीर्यजिन विचरता रे ॥ मनमोहना रे लाल । पुष्कर अद्धविदेह रे ॥ भविबोहना रे लाल ॥ जंगम सुरतरु सारिखो रे ॥ मन० ।। सेवे धन्य धन्य तेह रे ।। भवि० १ ॥ जिनगुण अमृत पानथी रे ॥ म ।। अमृतक्रिया सुपसाय रे ॥ भ० ॥ अमृतक्रिया अनुष्ठानथी रे ॥ म० ॥ आतम अमृत थाय रे ॥ भ० ॥ २॥ प्रीति भक्ति अनुष्ठानथी ।म० ।। वचनअसंगी सेव रे ॥ भ० ॥ कर्तातन्मयता लहे रे ॥म० ॥ प्रभुभक्ति नित्यमेव रे ।। भ० ॥३॥ परमेश्वर अवलंबने रे ॥ म० ।। ध्याता ध्येय अभेद रे ।। भ० ॥ ध्येय समाप्ति हुवे रे । म० ॥ साध्यसिद्धि अविच्छेद रे ॥ भ० ॥४॥ जिनगुण राग परागयी रे ॥म०॥ वासित मुझ परिणाम रे ॥भ०॥ तजशे दुष्टविभावता रे ॥म०।। सरशे आतम काम रे ॥भ०॥ ॥५॥ जिनभक्तिरत चित्तने रे ॥ म० ।। वेधकरस गुण प्रेम रे ॥ भ० ।। सेवक जिनपद पामशे रे ।। म० ॥ रसवेधित अय जेम रे ॥भ०॥६॥ नाथ भक्तिरस भावथी रे ॥म०।। तृण जाणुं परदेव रे ॥ भ० ॥ परमातम चिन्तामणि सुरतरु थकी रे ॥ म०॥ अधिकी अरिहंत सेव रे ॥भ०॥ ७॥ गुण स्मृतिथकी रे ॥ म० ॥ फरश्यो आतमराम रे ॥ भ० ।। नियमाकंचनता लहे रे ॥ म० ॥ लोह ज्युं पारस पाम रे ॥ भ० ॥८॥ निर्मल तत्त्वरुचि थइ रे । म० ॥ करजो जिनपति भक्ति ॥ भ०॥ देवचंद्र पद पामशो रे ॥म० ॥ परम महोदय युक्ति रे ॥ भ० ॥९॥ इति ॥ २० ॥
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