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मुनिगुणस्वाध्याय.
१०३७.
Albhavanathshnavanaramananminine
मुनिगुणस्वाध्याय.
राग प्रभाति. जगतमें सदा सुखी मुनिराज पर विभाव परिणतके त्यागी, जागे आत्म समाज निजगुण अनुभवके उपयोगी
जोगी ध्यान जिहाज ॥ ज० ॥ १ ॥ हिंसा मोस अदत्त निवारी, नहि मैथुनको पास, द्रव्यभाव परिग्रह त्यागी, लीने तत्त्व विलास ॥ ज० ॥२॥ निर्भय निर्मल चित्त निराकुल, विलगे ध्यान अभ्यास देहादिक ममता सवि वारी, विचरे सदा उदास ॥ ज० ॥३॥ ग्रहे आहारवृत्ति पात्रादिक, संयम साधनकाज देवचंद्र आणानुजाई, निज संपति महाराज ॥ ज० ॥४॥ इति॥
साधुपदस्वाध्याय. साधक साधज्यो रे निज सत्ता ईक चित्त, निजगुण प्रगटपणे जे परिणमें रे, एहिज आतम वित्त ॥
सा० ॥१॥ पर्याय अनंता निज कारजपणे रे, वरते ते गुण शुद्ध, पर्यायगुण परिणामें कर्तृता रे, ते निज धर्म प्रसिद्ध ॥ सा० २॥ परभावानुगत वीरज चेतना रे, तेह वक्रताचाल, करता भोक्तादिक सवि शक्तिमा रे, व्याप्यो उलटो ख्याल ॥
सा० ॥३॥ क्षयोपशमिक ऋजुताने उपनें रे, तेहिज शक्ति अनेक, निज स्वभाव अनुगतता अनुसरेरे, आर्यव भाव विवेक ॥ सा०॥४॥
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