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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथजिन स्तवन. ७६७
णवं, ते पण निकलंक एटले एकांतता अयथार्थता उन्नतता अधिकता रहित सम्यग्ज्ञान तेने शुद्धता कहीजें, तथा परिगति जे जीवनो शुद्ध मूल परिणाम ते स्वरूपने विषे एकवपणुं परभावमा पेसे नहीं, ए आत्मानी परिणति छे, अने संसारी जीवने विभाग रंगीने ते मूल परिणति तो चारित्र मोहनीयें आवृत्त छे, तेणें करीने वृत्ति जे प्रवृत्ति ते रागी द्वेषी पुद्गलभोगीपणे प्रवृत्ति रही छे, ते प्रवृत्ति तजीने शुद्ध स्वरूपपर भणी करि, ते प्रवृत्ति तथा परिणति बेहुनुं एकज प्रवर्त्तन थयुं जे परिणति तेहीज प्रवृत्ति रही, पण औपा धिक प्रवृत्तिनो अंश पण रह्यो नयी, ते माटे परिणति तथा प्रवृत्ति बेतु एकपणे अभेदें करी तेने एकता कहीयें. वली भावतादात्म्यता शक्ति केतां जे विभाव ते तज्जन्यता केतां तदुत्पतिसंबंधे छे, ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्म ते संयोग संबंध छे, अने शुद्धक्षायिक वीर्यादिक स्वगुण ते तादात्म्यसंबंधें छे, ते तादात्म्य संबंधती जे आत्मिक शक्ति क्षायिकवीर्यना उल्लासथी ते आत्माबल संततियोगमां संतति केतां परंपरानो जे संयोगकर्म संबंध, तेहने उच्छेदे, एटले ज्ञानावरणादि क र्मनी प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेशनो बंध, तेहनुं स्थिति प्रमाणे रहेवुं छे, एटले जे कर्मने आत्मप्रदेश साथ संबंध ते असंख्यातो काल उत्कृष्टो सित्तेर कोडाकोडी सागरोपमनो छे, परंतु एकबंध भोगवतां बीजा स्थितिबंध प्रतिसमयबंधाय छे, वली ते भोगवतां बीजा प्रतिसमय अनेक बंधाय छे, एटले.. कर्मपुद्गल ते एक समय बंध तेहनो संयोग तो सादि सांत छे, परंतु अभिनवबंधनी परंपरायें अनादि छे, जेम पिताथी पुत्र, पुत्रधी वली पुत्र, एटले तेनो ते मनुष्य तो पोताना.
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