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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org '७३० दे० चो० बा० मलियें, साधकने शुरूदेव तत्त्वने अवलंबं ते प्रधान छे ॥ इति त्रयोदशगाथार्थः ॥ १३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोटाने उत्संग, वेठाने सी चिंता ॥ तिम प्रभु चरण पसाय, सेवक थया निचिंता ॥१४॥ अर्थः- तथा लौकिक दृष्टांत कहे छे. जे मोहोटाने उत्संगे केतां खोलामां बेठो तेहने कोइ चिंतां नहीं, ते निचिंत थयो, तेम सेवक पण प्रभुजी निरामय देव तेहना चरणने सेववे, चिंतारहित थयो, जे परमोत्तम, सर्वगुणभोगी, निरालंबी, चिन्मयी, अनंत दान, लाभ, भोग, उपयोग' वीर्यमयी, श्रीजिनेश्वर निःकर्म देवतत्त्व, परभावना अकर्ता, परभाव अभोगी, परानुयायीता रहित, एहवो देव जो आदर्यो छे, तो मोहनुं श जोर छे ? संसार कोने छे ? कर्मनी बीक कोने छे ? जो परमोत्तम धणी में माहरे माथे कर्यो छे जेहना ध्यानथी माहारो मोक्ष नीपजे, ते देवनो योग मिल्यो छे. ते माटे चिंता नथी ॥ उक्तं च श्रीजिनवल्लभपूज्यैः ॥ पसरेइ तीयलोए, तावमोहंधयारंभमइ जई ॥ सिन्नमताव मिच्छत्तं सिन्ने फुरइ फुडफुरंताणं ॥ १ ॥ तंनाणंस पूरो, पयडपजीयसंतीज्झाणसुरो ॥ १४ ॥ इति चतुर्दश गाथार्थः ॥ अर प्रभु प्रभुता रंग, अंतर शक्ति विकासी ॥ देवचंद्रने आणंद, अक्षय भोग विलासी ॥ १५ ॥ इति । अर्थः- माटे श्री अरनाथ प्रभु अदारमा परमेश्वर जेणें तत्त्वरुचि थइने तत्त्वाभिलाषि तत्त्वसाधक तत्त्वयानी थइने १८८ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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