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व्यप्रकाश
॥ अशुद्धजीव कथन बहिरात्मीकि निंदा ॥
॥सबैया वेदीला ग्रंथ भने सब सासनके अभिमान धरै विचरै जगजेते, आपको पंडित मुख्य कहायकरै नित्य वाद विवाद अचेते; आतम बुद्धि तजे न शरीरसौं क्या पदिके गुनके समजेते, पाठ पढ्यो गुन कारन नां कछ रामहिराम जपत ज्युं तोते. १२५॥
॥ जिनधर्मप्राप्ति कथन ॥
॥ सवैया तेवीमा । में बहुकाल अज्ञानकी चालमै आपके रूपको भाव भुलानो, सो निजरूप लह्यो सुलहो अब मै सबमै भवसासु लजानो; चेतनवंत सदा अतिउज्जल संत अनंतसुज्ञानी मिलानो, ज्ञानको बीज अखीज निरंजन सज्जन श्रीजिनधर्म पीछानो. १२६
॥ आत्मपाट स्तुति कथन ।।
॥सवैया तेवीसा ॥ आतमसु मथि आतमज्ञानको भानु उद्योत ज्युं जोति बठे हैं, वासको काठघटात ज्युं आपमे आपसु ज्युं दवदावकठे हैं। याहिते आतम मग्नमती विरति सुव्रति शिवभाग चढेहैं, आत्मज्ञान विना सरनौन न साधकआतमपाठ पढे है. ॥१२७
॥ चोपाई ॥ जेसे रजु सरप भ्रम माने, त्युं अजान मिथ्यामति ठाने; देहबुद्धिको आत्म विचारे, याते भव भ्रमहेतु पसारे. ॥१२८।।
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