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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं. ६५३. वीजुं काहिं न मागुं स्वामी, एहि करो मुज काम जी ॥ शी०॥१०॥ अर्थः-हे त्रिभुवनगुरो ! ताहरी गुणसंपदा अनंती ते सर्व हुं प्रत्यक्षपणे जाणुं एहीज मागु छु, एहीज इच्छा छ, माहरे एहीज काम छे, जे ताहरी संपदा ते केवलीने प्रत्यक्ष छे, माटे केवल ज्ञान मागु छु. परंतु हे प्रभुजी ! हूं बीजुं काहिं पण मागतो नथी ॥ १० ॥ इति दशम गागार्थः ॥ एम अनंत प्रभुता सईहती, अर्चे जे प्रभु रूप जी ॥ देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूप जी ॥ शो- ११।। अर्थः-एम अनंती प्रभुनी प्रभुता, परमात्मता, सर्वप्रदेश निरावणता अनंत पर्याय, निरावरणता सकलज्ञानादि गुण निरावरणता, तेने सईहतां समकित गुण प्रगटे, ते प्रभुना गुणनी बहु मान सहित प्रतीत करतां जे जीव श्रीशीतलनाथ प्रभुना योगें प्रभुने अर्च, ते प्रभुने अर्चवानो अधिकार श्रीरायप्पसेणी सूत्रमध्ये कयुं छे. ॥ अत्थेगइया वंदणवत्तियाए पृयणवत्तियाए सक्कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए सुअं मुणिरसामो वागरणं पुच्छिस्सामो अच्छे गइया जिणभत्तिए मोत्ति अत्थेगइया जीय मेयंति ॥ ए आलावानी टीकामां अर्थ कयौँ छे, तथा प्रभुजीनो योग न मळे तो प्रभुनी स्थापना ते पण प्रभु समान छे. जे For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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