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'देश चो० बा.
मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान छे, तेणें करी जणाय नहीं, तथा अवधि मनःपर्यवज्ञान ते यद्यपि इंद्रियोने आधीन नथी, तो पण ते रूपीभावना जाणंग छे, पण जीवस्वरूपने जाणी शके नहीं, जे माटें क्षयोपशमज्ञाने अव्याबाधनुं स्वरूप जाण्युं न जाय, पण जे जीव तुझ समान गुणना राय केतां स्वामी थया, तेहज परमात्मा, ए अव्याबाध गुणनुं स्वरूप जाणे, तथा भोगवे, बीजाने प्रगट नथी, केम के आत्मधर्म अतींद्रिय छे माटे तेहना मोगी सिद्ध भगवंत छे, बीजाथी ए भोगवाय नहीं ॥८॥ इति ॥
एम अनंत दानादिक निजगुण, वचनातीत पंडूर जी॥ वासन भासन भावें दुर्लभ, प्रापति तो अति दूर जी ॥ शी० ॥९॥
अर्थः-एम अनंतादानादिक केतां दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सिद्धत्व प्रमुखगुण, हे प्रभुजी ! ताहरे प्रगट छे, ते वचनने गम्य नथी, पंडूर केतां मोहोटा छे, एहवा आत्मगुणनी वासन केतां श्रद्धा, भासन केतां जाणपणुं, ते पाम, दुर्लभ छे, तो प्रगटपणे एहवी सिद्धता पामवी सिद्धतानी प्राप्ति थवी तेतो घणीज वेगली छे ॥ इति नवम गाथार्थः ॥
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवनगुरु, जाणुं तुझ गुण ग्राम जो॥
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