SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९८० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुनी पंच भावना. तन धन परिजन सहु मिलीरे, कोइ सखाय न थायरे ॥ प्राण० ॥ १४ ॥ अर्थः- इंद्र चक्रवतीं वासुदेव बलदेव आदि महा बलवंत पुरुषो ते पण सर्वे पुद्गलीक शक्ति अने वैभव छोडी एकलाज परभवे जाय छे पण तन धन परिवार समां मित्रादि कोइ पण सखाई थई शकतां नथी. एहवा अशरण जीवने परमेश्वरना वचनमां प्ररुपेलुं शुरू स्वभावाचरण तेज शरणे राखनारा सखाई छे माटे कोइ प्रकारे पण चारित्रयी चलायमान थवुं नहीं ॥ १४ ॥ ज्ञायक रूप हुं एक छुरे, ज्ञानादिक गुणवंत | बाह्य जोग सहु अवर छेरे, पाम्यो वार अनंतरे ॥ प्राणी० ॥ १५ ॥ अर्थः- हुं ज्ञायक रूपे अनंत चेतना लक्षणवालो एक छं अने ज्ञानादि अनंत गुणे गुणवंत छं तेथी बाहेरला पुद् - गल योग ते सर्वे बाहरथी भिन्न छे अने ते अनंतिवार पाम्यो पण हुं अने तेथी सुखी पण थयो नयी माटे ए बाहेर योगने माहरे शा वास्ते आदरवा जोईए ? || १५ ॥ करकंडु नमिने गाईयेरे, दुम्मुह प्रमुख ऋषिराय । मृगापुत्र हरिकेशीनारे, बंदुं हुं नित पायरे ॥ प्राणी ॥ १६ ॥ ३० For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy