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सीमंधरस्वामी विनतीरुप स्तवन.
॥ श्री सीमंधरस्वामी विनतिरूप स्तवन ॥
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प्रभुनाथ तुं तियलोकनो, प्रत्यक्ष त्रिभुवन भागः सर्वज्ञ सर्वदशीं तुंमे शुद्ध सुखनी खाण ।। १ ॥
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जिणजी वीनती छे एह ( ए टेक )
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प्रभु जीव जीवन भव्यना, प्रभु मुज जीवन प्राण; ताहरे दर्शनं सुख लहूं, तुंहीज गति स्थिति जांग जि० ॥ २ ॥ तुज विना हुं चिहुं गति भम्यो, धर्या भेख अनेक; निजभावने परभावनो, जाण्यो नहीं सुविवेक जि० ॥ ३ ॥ धन्य तेह जे नितु प्रहसमें, देखे श्रीजिनमुख चंद; तुज वाणी अमृतरस लही, पामे ते परमानंद जि० ॥ ४ ॥ एक वचन श्री जिनराजनो, नय गम भंग प्रमाण;
जे सुंणे रुचिथी ते लहे, निज तत्त्व सिद्धि अमान. जि० ॥५॥ जे क्षेत्र विचगे नायजी, ते क्षेत्र अति सुपसथ्य;
तुज विरह जे क्षण जाव छे, ते मांनीये अकथ्थ. जि० ॥ ६ ॥ श्री वीतराग दर्शन विना, वीत्यो जे काल अतीतः
ते अफल मिच्छादुक्कडं, तिविहं तिविहनी रीत. जि० ॥ ७ ॥ प्रभु वात मुज मननी सह, जागोज हो जगनाथ; थिरभाव जो तुमचो हुं तो मिले शिवपुर साथ. जि० ॥ ८ ॥ प्रभु मिले हुं थिरता हुं, प्रभु विरहें चंचल भाव; एकवार जो तन्मय रमुं तो, करुं अचल स्वभाव. जि० ॥ ९ ॥ प्रभु अछो क्षेत्र विदेहमां, हुं रहुं भरत मझार;
तो पण प्रभुना गुण विषे, राखुं स्वचेतन सार. जि० ॥ १० ॥
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