SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थ श्रीअमिनंदनजिन स्तवनं. अर्थः-एम विचारतां उपयोग आव्यो ते कहे छे, पणजाणुं आगमबले केहेतां जे आगममां हें कह्यं ते गुरुमुखें सांभल्यु, तेना बलथकी जाणुं छु, जे हे भव्यजीव ! प्रभुश्री वीतराग साथे आपणे मलq छे, जेहने गरज होय, ते मले, एटले पोतानी संपदा प्रगट करवानो रुचिवंत मले, प्रभु तो स्व कहेता पोतानी संपत्ति जे स्वक्षेत्र असंख्यात स्व प्रदेशविषे व्यापकपणे रह्या जे अनंतज्ञानादिक गुण, ते संपदामयी छे, शुद्ध स्वरूपनो नाथ कहेतां धणी छे, माटे निष्पन्नपरमानंदभोगी शुद्ध स्वरूपी ते कोइथी मले नहीं ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ परपरिणामिकता अछे, जे तुझ पुद्गलयोग हो मित्त॥ जड चल जगनी एंठनो, न घटे तुझने भोग हो मित्त ॥ क्युं० ॥५॥ अर्थः-हवे कोई पुछशे जे सर्वद्रव्यमांहे परथी मलवानी शक्ति नथी, तो साधक जीवद्रव्य पण, वस्तुधर्मे शुद्ध छे, तेने प्रभुथी मल, ते पण तेनी सत्तामां तो नथी, तो हवे केवी रीतें मिले ? त्यां कहे छे. जे अनादि अतीतकाल ए संसारी जीवनुं आत्मिक सुख सर्व अवराणुं अने भोगधर्म, क्षयोपशमी छे, ते काईक भोगव्यो जोइयें, ते स्वरूपने अण पामवे, पुद्गलना वर्ण, गंध, रस, फरस, जे अभोग्य छे, तेने भोगवतो थको परभोगी थयो, परपरिणामी थयो, ए परपरिणामिकतानी चाल ते अनादिनी टेव छे, एटले कर्त्ता परनो, भोक्ता परनो, रमण परने विषे, ग्राहक परनो, एम सर्व, पर For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy