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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुनी पंच भावना. ज्यां स्वारथ त्यां ए सहु सगां, विण स्वारथ दूर। पर काजे पापे भले, तुं किम होये सूर ॥ रे जीव० ॥६॥ अर्थः--ज्यां सुधी जेने स्वारथ छे त्या सुधी ते सर्वे सगपण राखे छे पण स्वारथ थया पछी वेगला रहे छे तो ताहरे पोताना आत्म गुण शिवाय अन्य परिजनथी कांइ स्वारथ नथी तो परकाजे तुं शा वास्ते पापमां भलं छं अने पाप कार्यमां केम शूरो थाउ छु ? ताहरूं शूरपणुं ताहरा रागादि शत्रुओने विदारवामां जो वापरूं तोज ताहरूं पुरुषपणानुं साचुं पराक्रम कहेवाय पण कर्म शत्रुओने पोषवामां अने आत्म गुणोनी हानि करवामां शूरपणुं करे तेना जेवो मूर्ख कोण ? ॥६॥ तज बाहिर मेलावडो, मिलियो बहु वार। जे पूरव मिलियो नहीं, तिणस्युं धर प्यार ॥ रे जीव०॥७॥ अर्थ:--आत्म अंगी बाहिरनो मेलापरूप मेलावडो छोड के जे अनंतिवार मल्यो तो पण निवृत्तिरूप सुख लेश मात्र ताहरा हाथमां आव्युं नहीं माटे जे अनादियी नयी मल्यो एहवो शुद्धात्म धर्म अने शुद्धात्म धर्मना दातारथी प्यार कर के जेवडे परम निवृत्ति शाश्वत सुख पामे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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