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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्विंश श्री महावीरजिन स्तवनं. स्वामिदर्शन समो निमित्त लही निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे ॥ दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामिसेवासही निकट लाशे ॥ ता० ॥४॥ अर्थः- स्वामी श्रीवीतराग जे परकार्यना अकर्त्ता, परभावादिना अभोक्ता इच्छा, लीला, चपलता रहित एटले जे इच्छा तेतो ऊणतावंतने छे, अने जे परमेश्वर तेतो पूर्णसुखी छे, तेमाटे इच्छारहित, वली लीला पण सुखनी लालचवालाने होय, अने लालवीपणं नयी, एहवा स्वामीना दर्शन समान निर्मल निमित्त लही केतां पामीने जो ए आत्मानुं उपादान मूलपरिणति ते शुचि केतां पवित्र नहीं थाशे तो जाणी यें इयें जे वस्तु जे जीव, तेहनोज दोष केतां अवगुण छे, एटले रखे ए जीवनो दल अयोग्य होय ? ए जीवनी सत्ता केवी रीतनी ले ? अथवा पोताना उद्यमनी खामी छे ? केमके आकरे प्रयत्ने उद्यम करी आत्माने समाखो जोइयें, ते ए जीव. पोतानी ऊणारों आत्माने समारतो नथी, तेमाटे हवे शुं करवं ? जे बीजो उपाय कोइ नयी, तो श्रीअरिहंतनी सेवा तेहीज निशें निकट केनां नजीकता लासे केतां पमाइशे एटले ए आत्मा दृष्ट छे, परंतु श्रीजिनराजनी सेवनाथी दुष्टता तजशे ॥ ४ ॥ स्वामिगुण ओलखी स्वामीने जे भजे, दर्शन शुद्धता तेह पामे ॥ 08 २३५ For Private And Personal Use Only ७७७
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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