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दे० चो० बा.
यना हृदयरूप सरोवरना हंस, आचार्यजीना नाथ, गणधरना साक्षात् मोक्षहेतु अने स्याद्वादधर्मना उपदेशक, एहवा श्री अरिहंतदेव तेती सेवा करो, एहज आधार छे, ए श्रीचंद्रप्रभनी सेवा जिहां सुधि तमारी संपूर्ण सिद्धता न थाय, तिहां सुधि अखंड रहेजओ, एहीज सार छे ॥ ११ ॥
॥अथ नवम श्री सुविधिनाथजिन स्तवनं। धारा महेला उपर जरुखे वीजली हो लाल ॥जरुखे ॥ए देशी दीठो सुविधि जिणंद,समाधिरसें भर्यो होलाल॥स०॥ भास्यो आत्मस्वरूप, अनादिनोवोसो होलाल॥अ० सकल विभाव उपाधि, थकी मन ओसर्यो होलालाथ० सत्तासाधन मार्ग, भणी ए संचर्यो होलालाभ०॥१॥ - अर्थः--हवे श्री सुविधिनाथपरमात्मानी स्तुति करे छे. कोइक भव्य जीव अनादिकालनो मिथ्यात्व, असंयम, कषाययोग रूप द्रव्यभाव हेतुपणे परिणम्यो, एकेंद्रिय सूक्ष्म, बादर, तथा बेंद्री, तेंद्री, चौरिंद्री, पंचेंद्रीपणे अनंता भव सुधी भवचक्रमां फरतो अनेक कुदेवनी वासनायें वासित थको कुदेवने देव ए मानतो अगवा दे जे जीवी पर ग तेहने कर्तृत्व प्रमुख दोष मानतो थो कोइ काले श्रीवीतराग प्रभुनी प्रभुता दीठी नहीं, ते केवाकं भवस्थितिनो परिपाक करी, कोइक पुण्यना उदये श्रीसुविधिनाथ परमेश्वरनी मुना दीठी, ते पण अरूपी अनंतगुण प्रभुतापणे श्रधान भासन गोचर थई. ते
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