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द्रव्यप्रकाश.
५३९
मोहकी निंदमें घूमित चेतन देखत स्वप्ना भवादि उलासै, आपमे आप समाय रहे ध्रुव शुद्ध निरंजन भाव अभ्यासै. ॥१३६॥
॥ ज्ञानविलास कथन ॥
॥ सवैया तेवीसा ॥ ज्ञान विलास अभ्यास कीया विनुं कर्मको भर्म सदीउ वधार, इंद्रीय पंच प्रपंच करै चित या रस प्यार अपार संभार, फीरै भवमैं नव वेस करै नित भावीत कर्म उपाधि ले लारें, सो निज थान वसे जब देव ए हर्ष प्रकर्षकि नैन वधारै. ॥१३॥
॥ पुनः परमात्म वरणन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ ज्याकी ज्ञानज्योतिहीसं फुरत परम रस सरस यरस विनु जामे रस एनहे, लोकालोक लोकनकुं अमल विमल तेज योगादिक क्रिया विनुं ज्याकी आराधन है। मूलसे दलित अतिमोह गलके पटल अखिल विज्ञानवंत संत गुन घन है, एसौ देवचंद इदं त्रिगुण आनंदकंद ताहीसौ प्रतिति प्रीति थीर मेरे मन है ॥ १३८ ॥
॥ सम्यक्आत्मवर्णनं ॥
॥ संवैया इकतीसा ॥ जाके उर अंतरमें राग दोष मोह नांहि आपमे समाय रहैं आपही अनंत है, और द्रव्यसु न प्यार समें सार ध्यान धार धरीके संभार सार संत रस संत है; टंक सौ उकेरयो जैसो रतन अभंग जोति तैसो परब्रह्म निज ज्ञानसो महंत है, निरद्वंद है अबंध चेतनाको खंध संत अमलान ज्ञानगुन सनमंधवंत हैं ॥ १३९ ॥
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