________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं.
६४५
-
शके अथवा कोई एहवो पण होय जे अत्यंत प्रलय काल ना मोहोटा वायरानी गर्ने चाले, तथा कोइ अनंता लोकालोक मली सर्व आकाश तेने चरणे केतां पगे करी ओलंघे एहवो तो कोइ होय नहीं, परंतु दृष्टांत मात्र दीधो छे, जे एहवा शक्तिमंतथी पण निष्पन्न श्रीसिद्धपरमेश्वरनी जे प्रभुता ते क्षायोपशम शक्तिवालायी गणी जाय नहीं, अने श्रीवीतराग सर्वज्ञनी प्रभुता संपूर्ण ज्ञानी जाणे. परंतु ते पण वचनयोगें कहि शके नहीं, तेमाटे अनंत छे ॥ २ ॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥
सर्वद्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुणपर्याय जी ॥ तास वर्गथी अनंत गुणुं प्रभु, केवल ज्ञान कहाय जी ॥ शी० ॥३॥ अर्थः-हवे ते अनंतता कहे छे. सर्व जीवद्रव्य तथा अजीवद्रव्य अनंता छे, तेथी सर्वद्रव्यना प्रदेश अनंता छ, तेमां आकाश प्रदेशनी अनंतता अति मोटी छे, तेहथी वली गुणनी अनंतता घणीज मोटी छे, तेहथी वली पर्याय अनंत गुणा छे, ए अधिकार अल्प बहुत्वपदथी जोइ लेजो, यद्यपि पर्याय जे छे, ते मूलधर्मे गुणथी भिन्न नथी, वस्तुमां पर्याय परिपाटी छे, ते पर्यायनो समूह मली एक कार्य करे, ते प्रवृत्तिने गुण कहे छे, परंतु पर्यायनीज प्रवृत्ति छे, अने द्रव्य ते आधार छे, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षण, कार्गमेदें पर्यायथी गुण भिन्न छे, ते माटे गुणनी मिन्न व्याख्या उत्तराध्ययनादि
१०३
For Private And Personal Use Only