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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ दे० चौ. बा. AAAAAAnamne AAAAAAAMANNARAM - - कषाय, तृष्णा, नोकषाय, तापरहित परम वीतरागता, निस्पृहता, परम परभाव अभोग्यता रूप, शीतलता प्रगटी छे अने पति केतां क्षीणमोही प्रमुखना पति तेनी प्रभुता ठकुराइ अनंत सहज संपदातेमुज अल्पज्ञानीथी तो कही न जाय, केम जे सिद्धना अभिलाप्य, अनभिलाप्य, सर्वपर्याय निरावरण प्रगट थया छे, तेमां अनमिलाप्य पर्याय श्रीकेवली जाणे, पण वचनें अगोचर छे, माटे कहि शके नहीं, अने अमिलाप्य पर्याय अनंता छे, ते पण वचननो क्रम प्रवर्तन छे माटे. मित आउखें कहेवाय नहीं. तिहां अनंता जीवद्रव्य, ते एकेका गव्यना प्रदेश असंख्याता छे, ते वली एकेका प्रदेशे ज्ञानादि गुण अनंता छे, ते वली एकेका गुणना पर्याय अनंता छे तेमध्ये स्वभाव अनंता छ । उक्तं च ॥ जीवापुग्गल समया, दव्वपएसा य पज्जवा चेव ॥ थोवाणंताणता विसेसमहिया दुवेणंता ॥ १ इति तथा निर्मलता ते ए सर्व पर्याय निरावरण, निःसंग निःस्सहाय छे. अने पूर्णता केतां सर्व शक्ति प्रगटभावे पूर्ण छे, ते सर्व केवल ज्ञान विना जणाय नहीं ॥ १ ॥ इति प्रथम गाथार्थः॥ चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति झींपे अतिवाय जी ॥ सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणाय जी ॥ शी० ॥२॥ अर्थः-त्या दृष्टांत, जेम चरम केतां छेल्लो जेनी साधिक तीन रज्जु, बाह्य परिधि छे, एहवो जलधि केतां स्वयंभूरमण समुद्र तेहतुं प्रबल जल, तेने कोइ अंजलिये मापी For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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