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सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं. एक प्रदेशे ताहरे, अव्याबाध समाय हो ॥ जि० ॥ तसु पर्याय अविभागता, सर्वाकाश न माय हो ॥ जि० ॥श्री०॥६॥
अर्थः--वली हे प्रभु ! तमारा आत्माना एक प्रदेशने विषे अनंत गुण, अनंत पर्याय छे, तेमाहे हे प्रभुजी ! ताहारे एक प्रदेशे जे अव्याबाध गुण समाइ रह्यो छे, ते अनंतो छे, ते अव्याबाध सुखना पर्याय तेना अविभाग ते केवलीनी प्रज्ञायें जेहना एक खंडना बे खंड न थाय, तेने अविभाग कहिये, ते अविभाग लोक तथा अलोकाकाशना एकेका प्रदेशे एकेको सुखनो अविभाग राखिये, तोपण सर्वाकाश कहेतां लोक अलोक रूप सर्व आकाशमां समाय नहीं, एटले आकाशना प्रदेशथी पण तमारे एक प्रदेशे रघु जे अन्याबाध सुख, तेना अविभाग अनंत गुणा छे ।। यतः ॥ खित्ताओ भावधम्मा अणंतगुणा ॥ इति ॥ सदा क्षेत्रधर्मथी भावधर्म अनंत गुणा छे ॥ ६ ॥ इति ॥
एम अनंत गुणनो धणी, गुण गुणनो आनंद हो ॥ जि० ॥ भोग रमण आस्वादयुत, प्रभु तुं परमानंद हो ॥ जि० ॥श्री०॥७॥
अर्थः-एम केतां ए रीतें हे प्रभुजी ! तमें अनंत गुणना धणी छो, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, अव्याबाध, अमू
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