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दे० चो० बा०
देव जे धर्मदेव मुनिराज, तेमांहे चंद्रमा समान एहवू अरिहंत पद तेने ते जीव पामे, जेमां परमानंदनी समाधि छे, अने सकर्मारूप अवस्था ते महाव्याधि छे, माटे निरावरण निःकर्मा-' वस्था ते परम समाधिरूप छे, ते अवस्था श्रीसुपार्श्व परमात्माने अवलंबतां जीव पामे, माटे श्रीसुपार्श्व प्रभुनी सदा सेवना करवी. एहीज आधार, बाण, शरण ले ।। ८ ॥
॥अथ अष्टम श्री चंद्रप्रभजिनस्तवनं ॥ ॥ श्री श्रेयांस जिन अंतरजामी ॥ ए देशी ॥ श्रीचंद्रप्रभ जिनपद सेवा, हेवायें जे हलिया जी ॥ आतमगुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलिया जी श्री०॥१॥
अर्थः-हवे श्रीचंद्रप्रभ भगवान्नी स्तवना कहे छे, अने सेवना पण ओलखावे छे, ते श्रीचंद्रप्रभनामा आठमा प्रभुनी पद केतां चरणनी सेवा अथवा अरिहंत पदनी सेवना, तेहनी छे हेवा केतां चाल रीत, तेहमां जे हलिया केतां तेवी टेवें पड्या छे, तेहने प्रभुसेवन विना काल जाय नहीं, जेहने असंख्यात प्रदेशे श्रीप्रभु परमात्मा परमपूज्यनु आराध्यपणुं छे, ते जीव आत्मा चेतनालक्षण असंख्यात प्रदेशे स्वधर्मना कर्ता, स्वधर्मना भोक्ता, पोताना गुण ज्ञानदर्शनादिक, तेहनो अनुभव केतां भोगववं, तेहथी मल्या छे, एटले आत्मगुणभोगी
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