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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तम श्रीसुपार्श्वजिन स्तवनं. अर्थः--एहवू परमानंदरूप अव्याबाध सुख श्रीपरमात्मप्रभुने विषे छे, ते में निर्धार करयो, तेबारे जाण्युं के जेवू अव्याबाध सुख श्री सुपार्श्व प्रभुने विषे छे, एहबुज सुख माहारे विषे पण छे, एहवू जाणपणुं प्रगटयु, तेथी भव्य जीवने उपयोग आव्यो, जे हुँ पण ज्ञानादि अनंत गुणी छ, हवे माहारो शुद्धानंद भोग केवारे प्रगटे ? एहवा उपयोगें जे जीव ज्येष्ठ महिनामां जेम बपैयो तृषातुर थइने वरसादने अमिला वरते, तेनी परे जे जीव, अव्याबाध सुखनो रुचि अभिलाषी थइने पुद्गलसंयोगजन्य जे सुख तेतो विषभक्षण समान आत्मस्वरूपनां घातक जाणीने तेथी उभग्यो थको एक आत्मानंद केवारे प्रगटे ? एवो थको वर्ते, पछी तेहना साधक जे मुनिराज तेनां चरण सेवतां उदासीन थइने साधे, केतां निपजावे, आत्मिक अन्याबाध सुख प्रत्ये. एटले उत्तम जीव स्याद्वाद आगम श्रवण करी, पांच आश्रवथी विरमी शुद्धसंयमी थइ, देहनिस्पृही थको मोक्षने साधे ।। उक्तं च ॥ यतः ।। पंचासव विरत्ता, विसय विजुत्ता समाहि संपत्ता ॥ राग दोस विमुत्ता, मुणिणो साहंति परमत्थं ॥ १ ॥ आउस्स खीणमाण, सुप्पाणवियोगेवि जे समाहिपया ॥ सावय दड्ढवयावि हु, मुणिणो साहंति परमत्थं ।। २ ।। एहवा मुनिराज त्रिकाल विषयना अवांछक, तत्त्वगवेषी, तत्त्वरसिया, तत्त्वानंदरुचि, पोतार्नु तत्त्व, अनादिन कर्मसंगें दवाणं ते प्रगट करवा माटे सकल पुद्गलभावथी विरक्त थइने जे आत्मा निजावे छे ते जीव, निमित्तावलंबनी थइ स्वरूपावलंबन करतां स्वरूपमध्ये एकत्व पामीने क्षपकश्रेणि आरोहण करी धनघाति कर्म खपावीने सयोगी केवली थइ, पछी शैलेशीकरण करी निःकर्मा थइने 78 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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