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षोडशमा श्री नमिश्वर स्वामी जिन स्तवन. ८४१ सहज प्रगट्यो निज पर भाव विवेक जो, अंतर आतिम ठहरयो साधन साधवरे लोल॥ साध्यालंबी थई क्षाचकता छेक जो, निज परिणति धिरनिजधर्भ सेठवेरे लो॥ज०॥२॥ त्यागीने सवि पर परिणति रस रोझ जो, जागी छे निजआत्म अनुभव इष्टतारे लोल ॥ सहजे छुटी आश्रव भावनी चालजो, जालम ए प्रगटी संवर शिष्टतारे लोल॥ज०॥३॥ बंधुना हेतु जे छे पाप स्थानजो, ते तुज भगते पाम्या पुष्ट प्रशस्ततारे लोल ।। ध्येय गुणे वलग्यो पूरण उपयोग जो, तेहथी पामे ध्याता ध्येय समस्ततारे लोलाज०॥४॥ जे अति दुस्तर जलधि समो संसारजो, ते गोपद सम कीधो प्रभु अवलंबनेरे लोल॥ जाण्यो पूर्णानंद ते आतम पास जो, अवलंब्यो निर्विकल्प परमातमतत्वनेरेलोल॥ज०।५ स्याहादी निज प्रभुताने एकत्त्वजो, क्षायिक भावे थाए निज रत्नत्रयीरे लोल॥ प्रत्याहार करीने धारे धारण शुद्ध जो, तत्त्वानंदी पूर्ण समाधि लय मईरे लोल॥ज०॥६॥
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