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दशम श्री शीतलनाथजिन स्तवनं. मूलधर्म ते भाव, ए रीतें सर्वपरिणमन छे, ए श्री वीतराग निष्पन्नतत्त्वी प्रभुनी राजनीति चार प्रकारनी छे, वली श्रीप्रभुनी आज्ञा सर्व द्रव्य माने छे, एटले स्तवनापदें आरोप माटे कहे छे. जे अन्य राजानी आणा कोईक माने. कोइ न माने. पण हे प्रभु ! जे रीतें तमो तमारा ज्ञानमां जाणो छो ते रीतें तमाएं ज्ञान परिणमे छे, ते रीतें सर्व द्रव्य परिणमे छे, जे रीतें तमें प्ररूपणा करो छो, ते. रीतें सर्व द्रव्यनी परिणति छे, माटे तमें कोइने कहेता नथी, तथा कोइने त्रास करता नथी, भय पमाडता नथी, परंतु ते तमारा ज्ञाननी परिणति लोपी चालता नथी, आज्ञा लोपता नथी, एहवी सहज आणा सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरतिने दृष्ट छे, माटे निःप्रयास अखंड आणा छ । इति ॥ ५॥
शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगें, जे समरे तुझ नाम जी॥ अव्याबाध अनंतु पामे, परम अमृतसुख धाम जी॥ शी० ॥६॥
अर्थः-हवे प्रभुसेवार्नु फल कहे छे.जे साधक जीव, शुद्ध निर्वृषण आशय करीने क्षुद्रादिक आठ दोषने टालीने एटले क्षुद्रादिक दोष रहित जे करे,ते कार्यनो साधक थाय श्रीहरिभद्रसूरिये कां छे ॥श्लोक। क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः ॥ अज्ञो भवामिनंदी च, निष्फलारंभसाधकः ॥ १ ॥ तथा दग्धादिक दोष रहित तथा विषअनुष्ठान जे इह लोक फलनी आशा, अने गरलानुष्ठान जे परभवें इंद्रियसुखनी वांछा, वली अन्योऽन्य
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