________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
७१८
दे० चो० बा०
ए सप्तभंगी ते नित्य अनित्य भेद अभेदादिक धर्मनी तथा ज्ञान दर्शनादिक गुणनी सप्तभंगी थाय ते भावे छे. ज्ञान जे छे ते ज्ञायक परिच्छेदकादि स्वपर्यायें अस्ति छ, दर्शनचारिवादि स्वव्यपर्यायें तथा जडतादि परपर्या ये नास्ति छे, एम अनंती सप्तभंगी संभवे, ते बुद्धिवंते भाववी, तथा तत्त्वार्थ वृत्तिने विष बली सम्मतिवृत्तिने विषे विस्तारथी कही छे, अने स्याद्वादरत्नाकरे एहनुं स्वरूप तथा उपपत्ति, प्रवृत्ति, परिणति, नय सर्व वखाण्या छे. तिहांथी जोइ लेजो. हवे गाथानो अर्थ लखे छे.
निज केतां पोताने भावे, स्वव्य, स्वक्षत्र, स्वकाल, स्वभावपणे सीय केतां स्यात् कथंचितपणे अस्ति छे, अने तेहीज द्रव्य, परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभावपणे नास्ति छे, ते नास्तिपणुं द्रव्यमां अस्ति केतां छतापणे रह्यो छे, वली सीय केतां स्यात् कथंचित् उभय केतां अवक्तव्य स्वभाव एटले आदि भांगो तथा अंतनो भांगो संभारतां साते भंगा केहेवाणा, एहवी स्याद्वादपरिणति ते हे परमेश्वर तुमे प्रत्यक्ष ज्ञाने सर्वद्रव्यनी जाणीने उपदेश कर्यो, एहवी ताहरी वाणी छे, ए रीत शुफ अनंतता, अनेकता, सत्त्वता, साधकतायुक्त श्री अरिहंतनो उपदेश छे ॥ ८॥
अस्तिस्वभाव जे आपणो रे, रुचि वैराग्यसमेत ॥ प्रभु सन्मुख वंदन करी रे, मागीश आतम हेतो रे ॥ कुं० ॥९॥
१७६
For Private And Personal Use Only