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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यात्मगीता. ४४३ प्रदेश कमै लेपाता नथी सदा उघाडा छे, तेणे करी आत्मा सिद्ध समान जाणवो. व्यवहारनय मते बे प्रकारे जीव कहे छे, अशुद्ध ते अष्ट कर्माश्रित संसारी जीव, अने शुद्ध ते अष्टकर्म रहित सिद्ध, एवं बे प्रकारे व्हेंचे, एक सकळ कर्म क्षय करी लोकाग्रे बिराजमान ते सिद्ध, बीजा संसारी तेहना बे भेदएक सयोगी बीजा अयोगी इत्यादिक जे भेद ते व्यवहारनयना मतवालो ते वस्तुना गुण पर्यायथी प्रवर्त्तिने ग्रहे छे, ते प्रवत्ति बे प्रकारनी - जे द्रव्यना गुणनी शुद्धता जेथी निपजे ते प्रवृत्ति वे साधन शुद्ध व्यवहार १ अने जे प्रवृत्ति करतां द्रव्यधर्मनी अशुद्धता नीपजे ते प्रवृत्तिने अशुद्ध व्यवहार कहीये २१५ अशुद्धपणे पणसय तेसठी भेद प्रमाण । उदय विभेदे द्रव्यना भेद अनंत कहाण ॥ शुद्धपणे चेतनता प्रगटे जीवविभिन्न । क्षयोपशमिक असंख्य क्षायिक एक अनुन्न ॥६॥ अर्थः- अशुद्ध व्यवहारनयने मते जीवना पांचसे त्रेशठ भेदनो प्रमाण जाणवो. अशुद्ध औदयिक भावने योगे करी जोतां तो जीवद्रव्यना भेद अनंता कह्या छे, अने शुक्रव्यवहारनय मते जीवनी चेतनता नीपजे अने विभिन्न ते अभेदात्मपणे जाणवी. पुद्गलयी जीव जूदो जाणे जेहने घणो क्षयोपशम तेने अधिक कहिये जेहने वणो क्षयोपशम तेहने ओछो कहिये ते चेतना प्रगटी क्षयोपशमभावे अथवा क्षायिकभावे प्रगटे. क्षयोपशमिक समकितना असंख्याता भेद छे. क्षायिकभावनो एक भेद छे बीजो भेद नहीं ॥ ६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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