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पंचम श्री सुमतिजिन स्तवनं.
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नित्यानित्य स्वभाव छे, ते कहे छे, अभिनवपर्याय उपजे छे, पूर्वपर्यांय व्यय थाय छे, यथा एक प्रदेशें अगुरुलघुपर्याय अनंत गुणो छे, बीजे प्रदेशें तेथी अनंतभागहीन छे, त्रीजे प्रदेशें असंख्यात गुण वधतो छे, चोथे प्रदेशें संख्यात गुण वृद्धि छे, एम असंख्यात विभाग छे, ते प्रतिसमयं परावर्तरूप छे, ते जिहां अनंतगुण तिहां असंख्यात गुण थाय, तेथी जे प्रदेशें अनंत गुणपणं टल्युं, ते व्यय थयो, अने असंख्यातपणानुं उपजवं थयुं, ते उत्पाद थयो, नथा अगुरुलघु सतपणे रह्यो, ते ध्रुव जाणवो, तथा ज्ञेयनुं जाणवुं, ए ज्ञाननो धर्म छे, ते ज्ञेयने पलटवे जो ज्ञान नित्य होय, तो जणाय नहीं. जेमाटे विवक्षित समयने विषे केवलज्ञान अनंता अतीत धर्म थया, तेने जाणे, वर्तमानें अनंता धर्म छे तेने जाणे, तथा अनागत अनंता थाशे ते पण जाणे; यद्यपि थया छे थशे ए धर्म, ज्ञेयना छे, पण ते सर्वने जाणवानो धर्म, ज्ञानमांहे छे. अने परज्ञेयने जाणंगपणे ज्ञान परानुयायी थातुं नयी " विषयभेदात् विषयिणोऽपि भेदः ज्ञेयभेदात् ज्ञानभेदः, पुनः ज्ञानं यावंतोहि ज्ञेयस्य पर्यायास्तावंतस्तदेवभासकत्वेनास्याप्नेष्टव्याइति बृहद्भाष्ये " तथा जे ज्ञान वर्त्तमानपणे जाणतो, तेहने अतीतपणे जाणे, अने जे अनागत तेहने वर्त्तमानपणे जाणे, ए ज्ञानना पर्याय भासनवेत्तादिक ते सर्व एवी रीतें पलटे, तेथी पूर्वपर्यायनो व्यय, उत्तरपर्यायनो उत्पाद, अने ज्ञानपणे ध्रुव, एम दर्शन, चारित्र, सर्व गुण जाणवा, माटे हे श्रीसुमतिनाथ प्रभु ! तमारी शुद्धता केहवी छे ? जे समय उपजे, ते समयेंज व्यय पामे छे, अने तहवि कहेतां तो पण तेहवो रहे केतां मूलधर्म न मूके, एटले उपजे, विणसे, ते अनित्यता, अने ध्रुव रहे,
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