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एकवीशप्रकारी पूजा.
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नवि लहे दुःख संसारभीष्में ॥ ४६॥ इति चतुर्दश वस्त्रपूजा ॥ १४॥
१५ चामरपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ अति उज्ज्वल अंगुल तणं, एकशत आठ प्रमाण ॥ चामररत्ने पूजतां, नासे दुरितविहाण ॥ ४७ ॥ ढाल | कनकरयणनें दंडे, मंडित चामरजोडि ।। हरखतां जिनमुख निरखतां, वींजे होडा होडि ॥ विकसित कज जेम जिनमुख, सन्मुख आवी हंस ॥ सेवे एम उपमति करे, भवि जन धरी आशंक ॥ ४८ ॥ काव्यम् ।। ज्ञान मय किरिय उज्ज्वल स्वभावें, नति उन्नति गौण मुख्यादि भावें । मानगुणसंख जिनराज आणे, भावथी युद्ध चामर वखाणे ।। ४९ ॥ इति पंचदशचामरपूजा ॥ १५ ॥
१६ छत्रत्रयपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ उज्ज्वल शारद चंद जिम, छत्रत्रय बहु मूल ॥ ठाविजें जिन उपरें, तस दुगसिरि अनुकूल ।। ५० ।। ढाल | छत्रत्रय जेम फरके, थरके पातकवृंद ॥ मोहादिक अरि बाठा, नाठा करे आनंद ॥ जे नित्य पूजे छत्रे, शुभगो लहे जम्म ॥ ततक्षणे छत्र धरे हरि, सुरगिर उत्सव कम्म ॥ ५१ ॥ काव्यम् ।। हृत्कजें जेह जिनराज घ्यावे, लीनता अवंचक योग छावे, भावछत्र त्रयी गुणसमाजे, सादि निरअंत शिवराजराजे ।। ५१ ।। इति षोडशपूजा ।। १६ ।।
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