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एकवीशप्रकारी पूजा.
'८८३
२१ कोशपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ निज सुकृतउदय लघु, न्यायोपार्जितवित्त ।। वृद्धि जिनपतिकोशनी, करे पूजा जहत्ति ॥ ६५ ॥ ढाल ।। रूपैया सोनया, अभिरामी आतिचंग ॥ हूण पूतलिया गब्बर, छपन्न भेदप्रसंग ॥ पुण्य पामीलच्छी, खत्थीमतिजिनकोश ॥ वृद्धि करो अप्पा भरो, निजगुण भावसंतोष ॥ ६६ ॥ काव्यम् ॥ प्रतिक्षणे जेह जिनराज आणे, निजपरभाव विनाण नाणे ।। जेहयी आत्मगुणठाण वाधे, भावथी कोशनी वृद्धि साधे ॥ ६७ ॥ इति एकविंशतिकोशपूजा ॥ २१ ॥
॥दोहा॥ । एम एकवीश विधिपूजना, विरचे जे थिरचित्त ॥ मानव भव सफलो करे, वाधे समकितवित्त ॥ ६८ ॥ ढाल || अगणित गुणगण आगर, नागरवंदितपाय ॥ श्रुतधारी उपगारी ज्ञानसागर उवज्झाय ।। तासचरणकज सेवक, मधुकरपरें लयलीन ॥ श्रीजिनपूजा गाई, जिनवाणी रसपीन ॥ ६९ ॥ काव्यम् ।। संवत गुण युग अचल इंदु, हर्षभर गाइयो श्री जिनेंदु ॥ तास फल सुकृतथी सकल प्राणी, लहो ज्ञानउद्योत घन शिवनिशानी ॥ ७० ॥
॥दोहा॥ ॥ इगवीश श्रावकगुणवनें, पूजा पुष्कर मेह ॥ सुर नर सुख फूले फले, शिवसुख लहे अछेह ॥ ७१ ॥
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