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दे० चौ० बा०
अयोगी, अभोगी, अलेशी, अभेदी, असहायी, अकषायी, अरूपी, शुद्धस्वरूपी जे सिद्ध, सकलपरभाव अभोगी, पुद्गलोपचाररहित एहवो पूज्यस्वभाव जेहनो प्रगट्यो छे, तेहनी पूजा कीजें, जे भक्तिना रागी नहां, अने अभक्तिना द्वेषी नहीं, एहवा सर्वज्ञ तेहीज पूजवा योग्य छ । उक्तं च आप्तमीमांसायां ॥ देवागमनभोयान, चामरादिविभूतयः ॥ मायाविष्वपि दृश्यंते, अत स्त्वमसि नो महान् ॥१॥ सूक्ष्मांतरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचित् यथा ॥ अनु मे तत्त्वतोज्ञान, मिति सर्वज्ञशंसितम् ।। १ ।। अइसय पाडिहेरा, सव्व कम्म उदयसंभूआ ॥ तेणं न विम्हओ मे, विम्हओ वीयरागतें ॥ १ ॥
वली प्रभुर्नु पूज्यपणुं कहे छे. जे परकृत देवता मनुष्य गुणरागी थका अनेक प्रकारनी भक्ति, पूजा करे छे, परंतु परमेश्वर, कोइनी पूजा इच्छता वांछता नयी, इच्छादोष रहित छे, माटे परभावना संग, तथा परकृतपूजाने वांछता नथी, ते पूज्य जाणवा. अने साधक जे मोक्षना अर्थी, मार्गानुसारी, समकिती, देशविरति, संवेगपक्षी मुनिराज, तेहर्नु कार्य, जे संपूर्णसिद्धता, तेहना दाव केतां उपाय छे, तेहीज निमित्त योगें अनंत सिद्ध नित्यना, माटे पोतें पूजाना अवांछक, अने पूजे तेहने परमानंद पूर्णता निपजे ॥ १ ॥ इति
द्रव्यथो पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्तने शुद्ध ॥ परम इष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयं बुद्ध ॥ पू० ॥ २ ॥
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