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दे० चो० मा ॥अथ विंशतितम श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तवनं। ॥ओलंगडी ओलंगडीसुहेली हो, श्री श्रेयांसनी रे॥ए देशी॥
ओलंगडी ओलंगडी तो कीजें, श्री मुनिसुव्रत स्वामीनी रे ॥ जेहथी निज पद सिद्धि ॥ केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे रे, लहिएं सहेज समृद्धि ॥ ओ० ॥ १ ॥ अर्थ:--हवे श्रीमुनिव्रत परमेश्वर अद्भुत स्वरूप परमात्मा, अहिंसकनी स्तवना करे छे, मुनि जे निग्रंथ तेहना सुव्रत केतां भला व्रत एहवा श्रीमुनिसुव्रत प्रभु तेहनी ओलंग केतां सेवा एटले गुणग्राम करिये जेहथी निजपद केतां पोतानुं पद जे परमानंद पद तेहनी सिद्धि केतां निम्पत्ति थाये, वली केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे केतां प्रगटे, ज्ञानामृतरसनो भोगी थाय, तथा सहज अकृत्रिम रवरूपसमृद्धि पामे, ए प्रभु सेवान फल छे ॥ १ ॥ इति ॥
उपादान उपादान निज परिगति वस्तुनो रे, पण कारण निमित्त आधीन ॥ पुष्ट अपुष्ट दुविध ते उपदिश्यो रे, ग्राहक विधि आधीन ॥ ओ० ॥ २ ॥
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