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साधुनी पंच भावना. पुद्गल सकल विवेकथी॥तु०॥ शुद्ध अमूर्ति रूप ॥ भ०॥ इंद्रिय सुख निस्पृह थई ॥ तु०॥ अकषाय अबाह खरूप ॥ भ०॥ ६ ॥ अर्थः--पुद्गल ते पोताना वर्ण गंध रस स्पर्श सडण पडण विध्वंसन ग्रहण त्याग ए आदि अनेक रूपी लक्षण सहित छे. एयी मिन्न आत्म ज्ञान दर्शन रमण सुख वीर्य दान लाभ भोग उपभोग उपभोगादि अनेक अरूपी अमूर्ति लक्षण युक्त सदा छे. कोइ काले पण ते पुद्गलादि अन्य द्रव्यना विशेष लक्षणवालो हतो नहीं, छे नहीं, थशे नहीं माटे परलक्षणे पोतानो न जूओ. आत्मा स्वलक्षणे अस्ति परलक्षणे नास्ति रूप छे. एम परम विवेके स्वपर मित्रता जाणी पर ममता आदि त्यागी आपणा द्रव्य क्षेत्र काल भावमां आपापणानी रूडी मति करी थिर उपयोगे अखंड समय आत्मशुद्धता ध्यावो, आत्म शुद्धतामां उपयोग रमावो, इंद्रिय सुखथी निस्पृह थई कषायो अने कषायोनां कारण तजी अबाधित शुद्धात्म स्वरूपमां लक्ष थिर करो ॥ ६॥
द्रव्यतणा परिणामथी॥तु०॥ अगुरु लघुत्व अनित्य ॥ भ०॥ सत्य स्वभावमयी सदा ॥ तु०॥ असत्य तजो तुमे मित्त ॥ भ०॥७॥ अर्थः-द्रव्यना परिणामिकपणाथी अगुरूलघु स्वभाव सदाये
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