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साधुनी पंच भावना.
९६१
अर्थः--जे मुनि साधुनी बार प्रतिमा मांहेथी कोइ पण प्रतिमा आदरे अने धैर्यपणे अडोल अकंप आसने रहे, समताभावमां अतिशय लीन थइ उपयोगनी थिरता वधारे अने शरीरने तृण परे जाणे ते मुनि सहज शिव संपदा वरे ॥५॥
जिण साधु तप तलबाथी,
{डयो छे हो अरि मोह गयंद । तिण साधुनो हुँ दास छु, नित्य वंदुरे तस पय अरविंद ॥ भ०६॥
अर्थः--जे साधुए तपरुपी तलवार वडे मोह शत्रुरूप गजेंद्रने काप्यो ते साबुनो हुँ दास छं अने तेना पदकमलने नित्य वंदु छु ।। ६ ॥
आचार सूयगडांगमां, तिम कह्यो हो भगवई अंग। उत्तराध्ययन गुणतीशमें, तप संगे हो सहु कर्मनो भंग ॥ अ०॥७॥
अर्थः-आचारांग, मूत्रकृतांग, भगवती अंगमां अने उत्तराध्ययनना ओगणत्रीसमामां कयु छ के तपस्याथी सकल कर्मनो नाश थाय एम अनेक स्थानके कां छे ॥७॥
ते दुविध दुकर तप तपे, भव पास आश विरक्त । धन्य ! साधु मुनि इंडण समा,
ऋषि खंधक हो तोलग कुकदत्त ॥ १०॥८॥ 121
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