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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री बाहुजिन स्तवन. रूप उपदेश रहस्यमें वर्णव्यो छे ते जोज्यो. निज या विषुः कहो पर दया हवें कवण प्रकारे ए वचनने अधिकारनो आर शय पिण एहज छे. गुणपर्याय अनंतता, कारक परिणति तेम, प्रभुजी। निज निज परिणति परिणमें, भाव अहिंसक एम, प्रभुजी. ॥ वा० ॥९॥ हवे भावधर्मनी अहिंसकता कहे छे. तथा श्री भगवती सूत्रे भावओणं जीवे अणंता नाण पजवा । अणंता दंसण पज्जवा, अगंता चारित्त पन्जवा, अणंता अगुरुलघु पन्जवा. इत्यादि बंधाधिकारे तथा भावजीवः उत्तराध्ययन निर्युक्तो, जीवाजीव विभत्तिने विषे जोइ लेज्यो. नवरं तद्व्यतिरिक्तश्च जीवद्रव्यं द्रव्यजीवः उच्यते इति प्रक्रमस्तु विशेषद्योतकः रुचिरियं न कदाचित्तत्पर्याय वियुक्तं द्रव्यं तथापि च यदातद्वियुक्ततया विवक्ष्यते तदातद्रव्य प्राधान्यतो द्रव्य जीवो भावेतु दशविध एव परिणामः कर्मक्षय क्षयोपशमोदयापेक्षा परिणतिरूपो भावजीव: इति ३ ए शांतिवादि वैतालटीका पाठ छे. तथा धर्मसंय-. हणीने विषे तस्लेव धम्मरुवे नियपरत्वे हिं अत्थिनत्थित्ते भिन्न पवत्तिनिमित्तं तम्हातत्तंअणेगतो १ ए भावधर्म तथा श्री दशवकालिक नियुक्तिं अहिंसाना छ निक्षेपा कर्या छे. तेहनी टीका मध्ये पाठ छे,जे स्वगुणाबाधःअहिंसा 'वस्तु वृत्त्या अन्यातत् कारण वाद हिंसा' इत्यादि ते माटे जे गुण ज्ञानादिक पर्याय अवन्ने 'अगंधे' इत्यादि तथा कारक For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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