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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
विरूपकर सन्धिपाक ( Arthritis Deformans ) — यह प्रौढ़ व्यक्तियों में धीरे से प्रारम्भ होता है । पुरुष, स्त्रियों की अपेक्षा अधिक ग्रसित होते हैं । यह सर्व प्रथम बड़ी बड़ी सन्धियों पर आक्रमण करता है वंक्षण सन्धि पर इसका प्रभाव प्रायः देखा जाता है । तत्पश्चात् हाथ की छोटी सन्धियां इसके प्रभाव में आती हैं । इसमें अन्य साधारण सन्धिपाक के लक्षणों का अभाव रहता है क्योंकि यह औपसर्गिक न होकर विहासात्मक रोग है । सन्धि की गति कुछ मर्यादित होने पर भी गतिस्थैर्य नहीं होता। इस रोग का प्रारम्भ सन्धायीकास्थि ( articular cartilage ) से होता है न कि सन्धिश्लेष्मघरकला से ।
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सन्धायीकास्थि का विहास होने लगता है जिसके कारण यह तन्तुलों (fibrils ) में विभक्त होजाती है और मखमल जैसा इसका धरातल होजाता है । जब सन्धि में गति प्रारम्भ होती है तो घर्षण के कारण ये तन्तुल भाग घिस जाते हैं और कास्थि समाप्त होकर अस्थि अनावृत हो जाती है । यह अस्थि पर्याप्त चिकनी होजाती है और हस्तिदन्त के समान लगती है । सन्धायी धरातल पर प्रसीताएं ( grooves ) बन जाती हैं । ये प्रसीताएं दूसरे धरातल पर बने उभारों ( ridges ) के कारण बनती हैं। प्रसीताएं वा उभार इन धरातलों पर एक दूसरे के समानान्तर बने हुए देखे जाते हैं ।
सन्धि के किनारों में अस्थि धातु की बहिर्वृद्धि ( outgrowth ) देखी जाती है । सन्धायी धरातलों के चारों ओर मानो अस्थि की अंगूठी बना दी गई हो या ओष्ठन (lipping ) हो गया हो ऐसा प्रत्यक्ष देखा जाता है । सन्धायी धरातल के नीचे की अस्थि का विरलन और प्रचूषण बराबर चलता रहता है जिसके कारण वंक्षण सन्धि में ऊर्वस्थि की ग्रीवा निरन्तर घटती चली जाती है ।
सन्धिगुहा में श्लेष्मधरकला की झल्लरों ( fringes ) में छोटी छोटी तान्तव या कास्थियों की ग्रन्थिकाएं ( nodules ) बन जाती हैं जो आगे चल कर उनसे पृथक्कृत ( detached ) हो जाती हैं उस समय इन्हें अबद्ध पदार्थ ( loose body ) कहा जाता है ।
सन्धि के बन्धक या रज्जु ( ligaments ) में भी विहासात्मक परिवर्तन होने लगते हैं । जिससे वे प्रायः विनष्ट हो जाते हैं और आगे चलकर सन्धि के विसंघटन का कारण बनते हैं ।
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पृष्ठवंश में यह रोग अन्तराकीकस बिम्बों ( intervertebral discs ) में प्रारम्भ होता है थोड़े समय बाद सन्धिगुहाओं का गतिस्थैर्य हो जाता है और समीपस्थ कीकस एक दूसरे से तालकित ( locked ) हो जाते हैं। कीकसों के चारों ओर की बहिर्वृद्ध अस्थि और भी जकड़ लेती है जिससे उनमें कोई गति भी नहीं हो जाती । यह रोग मध्यवय के पश्चात् होता हुआ देखा जाता है । इसे विरूपकर की सपाक ( Spondylitis deformans ) कहते हैं । यह रोग उत्तरोत्तर बढ़ता