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विकृतिविज्ञान
मिलता जुलता होता है इसी कारण इसे आमवाताभ संज्ञा दी गई है । साधारणतः इसका प्रारम्भ शनैः शनैः होता है । यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिकतर देखा गया है । इस रोग में सर्वप्रथम छोटी छोटी अस्थियों की सन्धियों में पाक देखा जाता है जैसे हाथ या शंखास्थि की सन्धियों में तत्पश्चात् बड़ी बड़ी अस्थियाँ इससे प्रभावित होती हैं पर वंक्षण सन्धि ( hip joint ) पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता है। जिन सन्धियों में यह रोग रहता है उनमें चिरकाल तक देखा जाता है तथा उसके कारण उनमें स्थायी स्वरूप की क्षति भी पहुँचाता है । जिस प्रकार अन्य जीर्ण रोगों में विविध लक्षण देखे जाते हैं उसी प्रकार इस रोग में भी दौर्बल्य, के अवसर, प्रस्वेदास्राव, लसग्रन्थियों की वृद्धि आदि लक्षण देखे जाते हैं । बालकों में इस रोग में जब प्लीहाभिवृद्धि भी हो जाती है तो इसे स्टिल की व्याधि ( still's disease ) कहकर पुकारते हैं। चौथाई रोगियों में उनकी उपचर्म ऊतियों में व्रण शोधात्मक तान्तव ग्रन्थियाँ भी पाई जाती हैं । इनमें वेदना बिल्कुल नहीं होती और ये अग्रबाहु के पृष्ठ पर प्रायः देखी जाती हैं ।
सज्वरावस्था
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इस रोग में सन्धियों में निम्न परिवर्तन देखे जाते हैं :१. वे प्रवृद्ध ('enlarged ) हो जाती हैं ।
२. उनकी आकृति तर्क के समान ( spindle-shaped ) हो जाती है इन दोनों लक्षणों का कारण परिसन्धायी ऊतियों (periarticular tissue ) का परमचय ( hyperplasia ) तथा सन्धिगुहा में तरल का उत्स्यन्दन है ।
३. प्रारम्भिक अवस्था में यह रोग एक सन्धिश्लेष्मघरकलापाक मात्र होता है। जिसमें सन्धिश्लेष्मधरकला सूज जाती है उसमें रक्ताधिक्य हो जाता है तथा कोशाओं का प्रगुणन होने के कारण वह मोटी पड़ जाती है ।
४. कणात्मक ऊति श्लेष्मधरकला से प्रारम्भ होकर विषमतया सन्धायी धरातलों तक पहुँचती है जिसके कारण सन्धायीकास्थि का अपरदन ( erosion ) होजाता है तथा उसके नीचे की अस्थि का विरलन ( rarefaction ) होजाता है ।
५. इसका परिणाम तान्तव सन्धिस्थैर्य ( fibrous ankylosis ) में हो जावेगा जब कि सन्धिगुहा में तान्तव अभिलाग ( fibrous adhesions ) बन जावेंगे ।
६. परिसन्धायी व्रणशोथ के कारण सन्धि का प्रावर ( capsule ), उसके स्नायु, अत्यन्त दुर्बल होजाते हैं जिसके कारण बड़ी बड़ी विरूपताएँ देखने को मिलती हैं ।
यह किस जीवाणु के कारण होता है इसका पता नहीं चल पाता । इसमें सितकोशा गणना में अत्यधिक, पर रक्ताल्पता अधिक देखी जाती है। अवसादन गति ( rate of sedimentation ) बढ़ जाती है । उपनीरोदीयता ( hypochlorhydria ) में भी बहुत परिवर्तन हो जाता है । अधिक खोज करने पर कम उग्रतायुक्त - शोणांशिक मालागोलाणु सन्धियों से प्राप्त किए गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर के किसी भाग में कोई पूतिकेन्द्र ( septic focus ) होने के कारण ही यह रोग उत्पन्न होता है ।
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