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भगवती आराधना
'सबस्स पवयणस्स य सारो आराहणा तम्हा' इति यदुच्यते, यस्मिन्नेव काले मरणं तस्मिन्नेव काले रत्नत्रयपरिणतेन भाव्यं हितार्थिना अन्यदा किमिति चारित्र तपसि स प्रयासः क्रियते इति शिष्यशंकामुपन्यस्यति सूत्रकारः
जदि पवयणस्स सारो मरणे आराहणा हवदि दिट्ठा ।
किंदाई सेसकाले जदि जददि तवे चरित्ते य ।। १८ ।। . अदि पवयणस्स इत्यादिना । 'पवयणस्स' प्रवचनस्य । 'सारों' अतिशय इति । 'मरणे' आयुरते । 'आराहणा' आराधना रत्नत्रयपरिणतिः । 'जदि विठा' इति पदसंबंधः । यद्युपलब्धा । 'हववि' भवेत् । 'किदाई' किमिदानीं। 'सेसकाले' मरणकालादन्यः कालः शेषकालस्तत्र 'जददि' प्रयतनं क्रियते। क्व 'तवें' तपसि. 'चरित्ते' सामायिकादिके सावधक्रियापरिहारात्मके। चशब्दात् ज्ञानदर्शनयोश्च । एतदूवतं भवतिग्रहणकालादिषु भावितरत्नत्रयस्यापि मरणे तदभावे यदि सिद्धिः, अकृतभावनस्यापि मृतौ रत्नत्रयसान्निध्यात्सा सिद्धियदि भवति मरणधना सा महती संसृतिमावहति । अन्यदा जातायामपि विराधनायां मृतिकाले रत्नत्रयोपगतो संसारोच्छित्तिर्भवत्येव । ततो मरणकाले प्रयत्नः कार्य इत्यस्माभिरुपन्यस्तं । इतरकालवृत्तं तु रलत्रयं संवरनिर्जरयोर्कीतिकर्मणां च क्षयनिमित्तं इतीष्यत एव । तथा चोक्तं-'सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः' [त.सू० ९।४५] इति ।
रत्नत्रय धारण किया और अल्पकालमें ही सिद्धपद प्राप्त किया। इससे सिद्ध होता है कि आयुके अन्तमें आराधना सर्वोत्कृष्ट है ॥१७॥
यदि 'समस्त प्रवचनका सार आराधना है तो जिस कालमें मरण हो उसी कालमें अपना हित चाहनेवालेको रत्नत्रय धारण करना चाहिए, अन्यकालमें चारित्र और तपमें प्रयास क्यों किया जाये ? शिष्यकी इस शंकाको गाथासूत्रकार उपस्थित करते हैं
गा०-प्रवचनका अतिशय आयुके अन्तमें आराधना यदि देखी जाती है। तो क्यों इस समय मरणकालसे अन्यकालमें यति तप चारित्र और ज्ञानदर्शनमें यत्न करता है ? ॥१८॥
टीका-गाथामें आये 'च' शब्दसे ज्ञान और दर्शन लेना चाहिए। कहनेका आशय यह है कि मरणकालसे भिन्नकालमें अर्थात् दीक्षा ग्रहण, शिक्षाकाल आदिमें रत्नत्रयका पालन करनेपर भी यदि मरणकालमें उसका पालन न किया जाये तो मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती, और अन्यकालमें रत्नत्रयकी भावना न करके भी मरते समय रत्नत्रय धारण करनेसे वह मुक्ति यदि प्राप्त होती है तब तो मरणकालमें होनेवाला रत्नत्रय ही मोक्षका कारण हुआ । अतः शेषकालमें उसका प्रयास करना निष्फल हुआ।
इसका उत्तर देते हैं-मरण समय जो रत्नत्रयकी विराधना है वह संसारको बहत दीर्घ करती है। किन्तु अन्यकालमें विराधना होनेपर भी मरते समय रत्नत्रय धारण करनेपर संसारका उच्छेद होता ही है। अतः मरणकालमें प्रयत्न करना चाहिए यह हमने कहा है। अन्य धारण किया गया रत्नत्रय संवर, निर्जरा और घातिकर्मोका क्षय करने में निमित्त होता है इसलिए उसे हम स्वीकार करते ही हैं । तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-सम्यग्दृष्टि, श्रावक, मुनि अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशम श्रेणीवाला, उपशान्तमोह, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोह और जिन इनके क्रमसें असंख्यातगुनी असंख्यातगुनी निर्जरा होती है।
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