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भगवती आराधना
त्रसानां उपरि स्थापितं पीठफलकादिकं अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते वसतिः सा निक्षिप्त च्यते । हरितकंटकसचित्तमृत्तिकापिधानमाकृष्य या दीयते सा पिहिता । काष्ठचेलकण्टकप्रावरणाद्यार्पणं कुर्वता पुरोयायिनोपदर्शिता वसतिः साहारणशब्देनोच्यते । मृतजातसूतकयुक्तगृहिजनेन, मत्तेन, व्याधितेन, नसकेन, पिशाचगृहीतेन, नग्नया वादीयमाना वसतिर्दायकदुष्टा । स्थावरैः पृथिव्यादिभिः सः पिपीलिकामत्कुणादिभिः सहितोन्मिश्रा । वितस्तिमात्राया भुमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरंकदोषः । शीतवातातपाद्यपद्रवसहिता वसतिरियमिति निन्दां कुर्वतो वसनं धूमदोषः । निर्वाता, विशाला, नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुरागं इङ्गाल इत्युच्येत । एवमेतैरुद्गमादिदोषरनुपहता वसतिः शुद्धा तस्यां । 'अकिरियाए' दुःप्रमार्जनादिसंस्काररहितायाः। 'असंसत्ताए' जीवसंभवरहितायाः । 'णिप्पाहुडियाए' शय्यारहितायाः । सेज्जाए वसतौ। . अन्तर्बहिर्वा वसइ वसति । यतिविविक्तशचासनरतः ॥२३२।।
अथ का विविक्ता वसतिरित्यत्राह
सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूलआगंतुगारदेवकुले।
अकदप्पब्भारारामधरादीणि य विवित्ताइ ।।२३३।। शून्यं गृहं, गिरेर्गुहा, वृक्षमूलं, आगन्तुकानां वेश्म, देवकुलं, शिक्षागृहं केनचिदकृतं अकृतप्राग्भार
उसी समय लीपी गई है उसे म्रक्षित कहते हैं। सचित पृथिवी, वायु, जल हरे बीज, और त्रसजीवोंके ऊपर स्थापित पीठ, काष्ठकलक आदिको यहाँ शय्या करें ऐसा कहकर जो बसति दी जाती है उसे निक्षिप्त कहते है। हरित काँटे, सचित मिट्टीके आवरणको हटाकर जो वसति दी जाती है वह विहित दोषसे युक्त है। काष्ट, वस्त्र, कण्टकके आवरण आदिको खींचते हुए आगे जानेवाले मनुष्यके द्वारा दिखलाई गई वसति साधारण शब्दसे कही जाती है। जिसे मरण अथवा जननका शौच लगा है ऐसे गृहस्थके द्वारा या मत्त, रोगी, नपुंसक, जिसे पिशाचने पकड़ा हुआ है या बालिकाके द्वारा दी गई वसति दायक दोषसे दूषित है। स्थावर पृथिवी आदि, त्रस चोटी खटमल आदिसे सहित वसति उन्मिश्रा है। जितने वालिस्त प्रमाणाम साधको चाहिए उससे एक वालिश्त भूमि भी अधिक लेना प्रमाणातिरेक नामक दोष है। यह वसति शीतवायु, धूप आदि उपद्रववाली है ऐसी निन्दा करते हुए भी उसी वसतिमें रहना घूमदोष है। यह वसति विशाल है इसमें हवा नहीं आती, अधिक गर्म भी नहीं है, सुन्दर है इस प्रकार उससे अनुराग करना इंगाला दोष है । वसति इन दोषोंसे रहित होनी चाहिए ॥२३२।।
विशेषार्थ-साधुको देने योग्य आहार, औषध, वसति, संस्तर, उपकरण आदि दाताकी जिन मार्गविरुद्ध क्रियाओंसे उत्पन्न होते हैं वे उद्गम आदि सोलह दोष है। और मार्गविरुद्ध जिन क्रियाओंसे भोजन आदि बनाये जाते हैं वे सोलह उत्पादन दोष है । ये बत्तीस भी आधाकर्मरूप होनेसे दोष कहे जाते हैं। यतिके भोजन आदिके लिए छहकायके जीवोंको बाधा देना अथवा ऐसे कारणसे उत्पन्न भोजन आदि आधाकर्म कहे जाते हैं । एषणादोष दस हैं। मूलाचारमें इन दोषोंका कथन है।
विविक्त वसति कौन है यह कहते हैंटी०-शून्य घर, पहाड़की गुफा, वृक्षका मूल, आनेवालोंके लिए बनाया घर, देवकुल,
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