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भगवती आराधना
अज्ञात्वा प्रायश्चित्तग्रन्थं यो ददाति तस्य दोषं संकीर्तयत्युत्तरगाथया
ववहारमयाणंतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु ।
उस्सीयदि भवपके अयसं कम्मं च आदियदि ॥४५४॥ ‘ववहारं अयाणतो' प्रायश्चित्तं ग्रन्थतोऽर्थतश्च कर्मतश्चाविद्वान् । 'ववहरणिज्जं च' व्यवन्हियते अतिचारविनाशाथिनेति व्यवहरणीयमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं इति नवधा । 'ववहरंतो' प्रयच्छन् । • उस्सीयदि अवसीदति । क्व ? 'भवपके' संसारपङ्गे। 'अजसं आदियदि' अयशः तुण्डाचार्योऽयं यत्किचन ददाति नायं परं शोधयति, संसारभीरुयतिजनं वृथैव क्लेशयति इति । 'कम्मं च आदियदि' बध्नाति कर्म दर्शनमोहनीयाख्यं उन्मार्गोपदेशात् सन्मार्गविनाशनाच्च । तस्मादज्ञो न दद्यात्प्रायश्चित्तमिति सूत्रार्थः । आचार्याणामियं शिक्षा । वयमाचार्या यदस्माभिर्दत्तं तदिदं कुर्वन्तीति यत्किचन न वक्तव्यम् । श्रुतरहस्याः प्रायश्चित्तदाने यदलमिति ।।४५४॥
जह ण करेदि तिगिच्छं वाघिस्स तिगिच्छओ अणिम्मादो ।
ववहारमयाणंतो ण सोधिकामं वि सुज्झेइ ॥४५५।। यदि नाम मुखरा मुग्धानेकशिष्यजनपरिवृतत्वमात्रणोपजाताहंकारा मूर्खलोकेनादृताः सन्ति सूरयस्ते भवद्धिः शुद्धयर्थं न ढोकनीयाः इति शिक्षयति- 'जह ण करेदि तिगिच्छ'-यथा न करोति चिकित्सा वाहिस्स व्याधेः । 'तिगिच्छगो' वैद्यो । 'अणिम्मादो' अनिपुणः । 'तहा' तथा । 'ववहारमजाणतो' प्रायश्चित्तमजानन्सूरिः । 'सोधिकाम' रत्नत्रयशुद्धयभिलाषं । ण सोधेदि खु न शोधयत्येव ।।४५५।।।
जो प्रायश्चित्त शास्त्रको जाने विना प्रायश्चित्त देता है उसका दोष कहते हैं
गा०-टो०-जो प्रायश्चित्त शास्त्रको ग्रन्थरूपसे, अर्थरूपसे और कर्मरूपसे नहीं जानता, तथा अतिचारके विनाशके इच्छुक मुनिके द्वारा जिसका व्यवहार किया जाता है वह व्यवहरणीय है । आलोचना आदि नौ प्रकारका प्रायश्चित्त, उसे जो देता है वह आचार्य संसाररूपी कीचड़में फंसकर दुःख उठाता है तथा अपयश पाता है। लोग कहते हैं यह तुण्डाचार्य है जो कुछ भी प्रायश्चित दे देता है, दूसरेके दोषकी विशुद्धि नहीं करता। संसारसे भीरु साधुओंको व्यर्थ ही कष्ट देता है । तथा उन्मार्गका उपदेश देनेसे और सन्मार्गका नाश करनेसे दर्शनमोहनीय नामक कर्मका बन्ध करता है । अतः अज्ञानीको प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिये यह इस गाथाका अभिप्राय है। यह आचार्यों की शिक्षा है। हम आचार्य हैं। हमने जो प्रायश्चित्त दिया है उसे करो, इस प्रकार जो कुछ भी नहीं बोलना चाहिये। प्रायश्चित्त शास्त्रके ज्ञाताओं ही प्रायश्चित्त देने में समर्थ होते हैं ॥४५४॥
जो वाचाल आचार्य मूढ अनेक शिष्योंसे घिरे रहने मात्रसे गर्वित हैं और मूर्ख लोग जिनका आदर करते हैं, प्रायश्चित्तके लिए उनके पास नहीं जाना चाहिये यह शिक्षा देते हैं
गा०-जैसे अनिपुण वैद्य व्याधिकी चिकित्सा नहीं करता, वैसे ही प्रायश्चित्तको न जानने वाला आचार्य रत्नत्रयकी विशुद्धिके इच्छुकको शुद्ध नहीं करता ॥४५५।।
१. कुर्वितीति आ० । कुर्विति मु० । २. यतध्वमिति आ० मु० ।
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