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विजयोदया टीका
३७३ मतविकल्पाच्च । 'सव्वच्चागे य' सर्वातिचारे च 'आपन्नो' आपन्नः ।।४८९॥ ।
आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि ‘सगदोसे ।
कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे ||४९०।। 'आइरियाणं' आचार्याणां । 'भिक्खु' भिक्षुः। 'कहेदि' कथयति । 'वीसत्यदाए' विश्वासेन । कि ? 'सगदोसे' स्वातिचारान । 'कोई पुग' कश्चित्पुनराचार्यपाशः । 'णिद्धम्मो' निष्क्रान्तो बहिभूतो जिनप्रणीताद्धर्मात् । 'अण्णेसि' अन्येभ्यः । 'कहेदि ते दोसे' कथयति तान आलोचितान्दोषान । अनेन किलायमपराघः कृत इति ॥४९॥
तेण रहस्सं भिदंतएण साधू तदो य परिचत्तो ।
अप्पा गणो य संघो मिच्छत्ताराधणा चेव ॥४९१॥ 'तेण' तेन । 'रहस्सं भिवंतएण' प्रच्छाद्यालोचितदोषप्रकाशनकारिणा। 'साहू' साधुः । 'तदो य परिचत्तो' ततस्तु परित्यक्तः । स्वदोषप्रकाशने मया कृते लज्जावानयं दु:खितो भवति । आत्मानं वा घातयेत् । कुपितो वा रत्नत्रयं त्यजेत इति स्वचित्तेऽकूर्वता परित्यक्तो भवति । 'अप्पा परिचत्तो', 'गणो परिचत्तो, संघो परिचत्तो', इति प्रत्येकाभिसंबन्धः । 'मिच्छत्ताराहणा चेव' मिथ्यात्वाराधना दोषो भवति ॥४९१।। इत्थं साधुः परित्यक्तो भवतीत्याचष्टे
लज्जाए गारवेण व कोई दोसे परस्स कहिदोवि ।
विपरिणामिज्ज उधावेज्ज व गच्छेज्ज वाध मिच्छतं ॥४९२।। 'लज्जाए' लज्जया। 'गारवेण व गुरुतया वा । 'कोई' कश्चित् । 'दोसे' दोषान् । 'परस्स' परस्मै । 'कहिदो वि' कथितोऽपि । 'विपरिणामेज्ज' पृथग्भवेत् । नायं मम गुरुः प्रियो यदि स्यात्कि मदीयान्दोषान्निअनुमोदनाके भेदसे देशातिचारके अनेक भेद हैं ।।४८९।।
गा०-भिक्षु विश्वासपूर्वक अपने दोषोंको आचार्योंसे कहता है। कोई आचार्य जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये धर्मसे भ्रष्ट होता है, वह भिक्षुके द्वारा आलोचित दोषोंको दूसरोंसे कह देता है कि इसने यह अपराध किया है अर्थात् ऐसे करनेवाला आचार्य जिनधर्मसे बाह्य होता है ॥४९०॥
गा० --उस आलोचित दोषको प्रकट करनेवाले आचार्यने ऐसा करके उस साधुका ही त्याग कर दिया। क्योंकि उसने अपने चित्तमें यह विचार नहीं किया कि मेरे द्वारा इसके दोष प्रकट कर देनेपर यह लज्जित होकर दुखी होगा, अथवा आत्मघात कर लेगा, अथवा क्रुद्ध होकर रत्नत्रयको ही छोड़ देगा। तथा उस आचार्यने अपनी आत्माका त्याग किया, गणका त्याग किया, संघका त्याग किया। इतना ही नहीं, उसके मिथ्यात्वकी आराधना दोष भी होता है ।।४९१॥ . उस आचार्यने साधुका परित्याग कैसे किया, यह कहते हैं
गा०–निर्यापकाचार्यके द्वारा दूसरेसे साधुके गुप्त दोष कहनेपर कोई क्षपक लज्जावश या मानकी गुरुतावश विपरीत परिणाम कर सकता है। यह मेरा गुरु नहीं है। यदि मैं इसे
१. गच्छाहि वा णिज्जा-मु० । 'गच्छाहि वा णिज्जा','गच्छेज्ज मिच्छत्तमितिपाठे-मूलारा० ।
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