Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 945
________________ ८७८ भगवती आराधना विस्तीर्णो विध्वस्तः असुषिरोऽबिल: निर्जन्तुकस्तस्मिस्थण्डिले । 'जदणाए संथरित्ता' यत्नेन संस्तरं कृत्व! .' यत्नः ? तृणानां पृथक्करणं संस्तरभूमिप्रतिलेखनं, 'उत्तरसिरमधव पुन्वसिरं संथारं संथरित्ता य' पूर्वत्तिमाङ्गमुत्तरोत्तमाङ्ग वा संस्तरं संस्तीर्य शिरःप्रभृति कायं पादौ च यत्नेन प्रमाज्यं ॥२०३०।। पाचीणाभिमुहो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा । सीसे कदंजलिपुडो भावेण विसुद्धलेस्सेण ।।२०३१।। 'पाचीणाभिमुखो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा' प्राङ्मुखो उदङ्मुखो वा भूत्वा तत्र संस्तरे संस्थित्वा । 'सीसे कदंजलिपुडो' मस्तके न्यस्तकृताञ्जलिः । 'भावेण विसुद्धलेस्सेण' विशुद्धलेश्यासमन्वितेन भावेन ॥२०३॥ अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं । दंसणणाणचरित्तं परिसारेदूण णिस्सेसं ॥२०३२।। 'अरहादिअंतियं अईदाद्यन्तिकं । 'तो' पश्चात आलोचनां कृत्वा सुपरिसद्ध 'दंसणणाणचरित्तं पडिसारेदूण' दर्शनज्ञानचारित्राणि संस्कृत्य निरवशेष ॥२०३२।। सव्वं आहारविधि जावज्जीवाय वोसरित्ताणं । वोसरिदूण असेसं अब्भंतरवाहिरे गंथे ।।२०३३।। सर्व आहारविधि सर्व आहारविकल्प । यावज्जीवं परित्यज्य बाह्याभ्यन्तरानशेषान् परिग्रहांश्च त्यक्त्वा ।।२०३३॥ सव्वे विणिज्जिणंतो परीषहे धिदिबलेण संजुत्तो । लेस्साए विरुज्झंतो धम्मं ज्झाणं उवणमित्ता ।।२०३४।। 'सव्वे विणिज्जिणंतो' सर्वांश्च जयन् परिषहान् धृतिबलसमन्वितः लेश्याभिविशुद्धः सन् धर्मध्यानं प्रतिपद्य ॥२०३४॥ फैला देता है। वह भूमिप्रदेश भी प्रकाश सहित, विस्तीर्ण, छिद्ररहित तथा जन्तुरहित होना चाहिये । उसपर संस्तर ऐसा होना चाहिये जिसमें सिर पूर्वदिशा या उत्तर दिशाकी ओर रहे । तब सिरसे लेकर पैर तक शरीरका सावधानीसे परिमार्जन करके पूरब या उत्तरकी और मुख करके उस संस्तर पर बैठता है और हाथोंकी अंजली बनाकर मस्तकसे लगाता है तथा विशुद्ध लेश्या पूर्वक अर्हन्त आदिके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को पूर्ण रूपसे निर्मल करता है ॥२०३०-२०३२।। गा-समस्त प्रकारके आहारके विकल्पको जीवनपर्यन्तके लिये त्याग देता है तथा समस्त अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको त्याग देता है ॥२०३३।। ___ गा०-धैर्यके बलसे युक्त वह क्षपक सब परीषहोंको जीतता है और लेश्या विशुद्धिसे सम्पन्न हो, धर्मध्यान करता है ।।२०३४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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