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विजयोदया टीका ठिच्चा णिसिदित्ता वा तुवट्टिदण व सकायपडिचरणं । सयमेव णिरुवसग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयवं ॥२०३५।। सयमेव अप्पणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तधा सयमेव विकिंचिदे विधिणा ।।२०३६।। जाधे पुण उवसग्गा देवा माणुस्सिया व तेरिच्छा । ताधे णिप्पडियम्मो ते अधियासेदि विगदभओं ।।२०३७॥ आदितियसुसंघडणो सुभसंठाणो अभिज्जधिदिकवचो ।
जिदकरणो जिदणिदो ओघबलो ओघसूरो य ।।२०३८।। "ठिच्चा' स्थित्वा आसित्वा शयनं वा कृत्वा स्वकायपरिकरं स्वयमेव निरुपसर्गे विहारे करोति । स्वमेवात्मनः करोत्याङ्कचनादिकाः क्रियाः उच्चारकादिकं च निराकारोऽति प्रतिष्ठापनासमितिसमन्वितः । यदि पुण उवसग्गा' यदा पुनरुपसर्गा दवमनुष्यतिर्यक्कृता भवन्ति तदा निष्प्रतीकारस्तान् सहते विगतभयः । 'मादितिगसुसंघडणो' आद्येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसंहननः शुभसंस्थानोऽभेद्यधृतिकवचो जितकरणो जितनिद्रो महाबलो नितरां शूरः ॥२०३५-२०३८।।
बीभत्थभीमदरिसणविगुविदा भूदरक्खसपिसाया ।
खोभिज्जो जदि वि तयं तधवि ण सो संभम कुणइ ॥२०३९।। 'वोसत्यभीमदंसणविगुन्विदा' वीभत्सभीमदर्शनविक्रिया भूतराक्षसपिशाचा यद्यपि क्षोभं कुर्वन्ति तथा प्यसौ न संभ्रमं करोति ॥२०३९।।
इढिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसदेवकण्णाओ। 'लोलंति जदिवि तगं तधवि ण सो विम्भयं जाई ॥२४०॥
गा०-वह कायोत्सर्गसे स्थित होकर अथवा पर्यङ्कासन आदिसे बैठकर अथवा एक पार्श्वसे शयन करते हए धर्मध्यान करता है। तथा उपसर्गरहित दशामें स्वयं ही अपने शरीरकी परिचर्या-हाथ-पैरोंका संकोचन, फैलाना आदि करता है। स्वयं ही प्रतिष्ठापना समितिपूर्वक शौच आदि करता है। यदि देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकत उपसर्ग होता है तो उसका प्रतिकार नहीं करता है और निर्भय होकर उसे सहन करता है। क्योंकि उसके आदिके वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच नामक तीन शुभ संहननोंमेंसे कोई एक संहनन होता है, समचतुरस्र संस्थान होता है। न भेदने योग्य धैर्यरूपो कवच होता है। वह इन्द्रियों और निद्रा पर विजय प्राप्त करता है । महाबली और शूरवीर होता है ॥२०३५-३८॥
गा०-यदि अत्यन्त भयंकर विक्रियाके द्वारा भूत, राक्षस और पिशाच जातिके व्यन्तरदेव उसे डरावें तो भी वह विचलित नहीं होता ।।२०३९।।
। १. लालेति -मूलारा० ।
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