Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 968
________________ विजयोदया टोका ९०१ 'कज्जाभावेण पुणों' कार्याभावेन तत्स्पंदनं नास्ति तस्य न च परप्रयोगगतमपि स्पंदनमस्त्यदेहस्य सिद्धस्य ॥२१३२॥ कालमणंतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो । सो' उवकारो इट्टो ठिदिसभावो ण जीवाणं ॥२१३३॥ 'कालमणंतं' अनन्तकालं अधर्मास्तिकायोपगृहीतः गगनमनुप्रविष्टः तिष्ठति । 'उवकारो इद्वो' अधर्मास्तिकायेन संपाद्यउपकारः अवस्थानलक्षण इष्टो यस्मान्न जीवस्य स्थितिस्वभावश्चैतन्यादिवत् ।।२१३३॥ तेलोक्कमत्थयत्थो तो सो सिद्धो जगं णिरवसेसं । सव्वेहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदव्वेहिं ।।२१३४।। 'तेलोक्कमत्ययत्यो' त्रैलोक्यमस्तकस्थः ततोऽसौ जगन्निरवशेष सर्वेःपर्यायस्सर्वैर्द्रव्यस्संपूर्ण ॥२१३४॥ पस्सदि जाणदि य तहा तिण्णि वि काले सपज्जए सव्वे । तह वा लोगमसेसं पस्सदि भयवं विगदमोहो ॥२१३५॥ 'पस्सदि जाणदि' पश्यति जानाति च कालत्रये पर्यायसहितानशेषांस्तथा चालोकमशेषं पश्यति भगवान् विगतमोहः ॥२१३५।। भावे सगविसयत्थे सूरो जगवं जहा पयासेइ । सव्वं वि तथा जुगवं केवलणाणं पयासेदि ॥२१३६॥ .. 'भावे सगविसयत्थे' आत्मगोचरस्थान् भावान् सूर्यो युगपद्यथा प्रकाशयति तथा सर्वमपि ज्ञेयं युगपत्केवलज्ञानं प्रकाशयति ।।२१३६॥ गदरागदोसमोहो विभओ विमओ णिरुस्सओ विरओ। बुधजणपरिगीदगुणो णमंसणिज्जो तिलोगस्स ॥२१३७॥ और वे शरीर रहित हैं । अतः वायु आदिके प्रयोगसे भी उनमें हलन चलन नहीं होता ॥२१३२।। गा-सिद्ध जीव जो अनन्तकाल तक आकाशके प्रदेशोंको अवगाहित करके ठहरा रहता है सो यह अवस्थान रूप उपकार अधर्मास्तिकायका माना गया है। क्योंकि जैसे जीवका स्वभाव चैतन्य आदि है उस प्रकार जीवका स्वभाव स्थिति नहीं है ॥२१३३॥ गा०–तीनों लोकोंके मस्तकपर विराजमान वह सिद्ध परमेष्ठी समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायोंसे सम्पूर्ण जगतको जानते देखते हैं। तथा वे मोहरहित भगवान् पर्यायोंसे सहित तीनों कालोंको और समस्त अलोकको जानते हैं ॥२१३४-३५॥ जैसे सूर्य अपने विषयगोचर सब पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करता है वैसे ही केवल ज्ञान सब पदार्थोंको एक साथ प्रकाशित करता है ॥२१३६॥ १. उवकारो इट्ठो जं ठि -अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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