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भगवती आराधना
नामेंद्रियसुखानां दोषोऽभिहितः । दुःखपूर्वाणि न हि क्षुधादिदुःखमंतरेण अशनादिकं प्रीति जनयति । न चास्ति रागमनपाकृत्य सुखं नाम किंचित् ॥ २१४६||
इन्द्रियसुख स्वरूपमभिधाय अनिद्रियसुखं व्यावर्णयति
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अणुवमममेयमक्खयममलमजरमरुजमभयमभवं च । एयंतियमच्चंति यमव्वाबाधं सुहमजेयं ॥ २१४७॥
'अणुपमममेयं' तत्समानस्य तदधिकस्याभावात् सुखस्य तदनुपमं छद्यस्थज्ञानैर्मातुमशक्यत्वादमेयं, प्रतिपक्षभूतस्य दुःखस्याभावादक्षयं रागादिमलाभावादमलं, जरारहितत्वादजरं, रोगाभावादरुजं, भयाभावादभयं भवाभावादभवं, ऐकांतिकं दुःखस्य सहायस्याभावाद कांतिकमसहायं अन्याबाधरूपं तत्सुखं ॥ २१४७ ॥ विसएहिं से ण कज्जं जं णत्थि छुदादियाओ बाधाओ । रागादिया य उवभोग हेदुगा णत्थि जं तस्स ।। २१४८।।
'विसएहि से ण कज्जं' शब्दादिभिर्विषयैः न कार्यं यतः सिद्धस्य न संति क्षुधादिका वाधाः, रागादरच विषयोपभोगहेतवो न संति यस्मात्तस्य ॥ २१४८ ॥
एदेण चैव भणिदो भासणचंकमणचितणादीणं । .
चाणं सिद्धम्म अभावो हदसव्वकरणम्मि ॥ २१४९ ॥
'एदेण चैव भणिदो' एतेनैवोक्तः भाषण- चंक्रमण - चितनादीनां चेष्टानामभावः सिद्धे हतसर्वक्रिये ॥ २१४९ ॥
इन्द्रियसुख दुःखको लानेवाला है तथा दुःखपूर्वक होता है । अर्थात् पहले दुःख होता है तब वह सुख होता है क्योंकि भूख प्यास आदिका दुःख हुए बिना भोजनादि प्रिय नहीं लगते । रागभावके बिना संसार में किञ्चित् भी सुख नहीं है ॥ २१४६||
इन्द्रिय सुखका स्वरूप कहकर अतीन्द्रिय सुखको कहते हैं
गा० - टी० - उसके समान या उससे अधिक सुखका अभाव होनेसे अतीन्द्रिय सुख अनुपम है । छद्मस्थ जीवोंके ज्ञानके द्वारा उसका माप करना अशक्य होनेसे अमेय है । उसके विरोधी दुःखका अभाव होनेसे वह अक्षय है-उसका कभी नाश नहीं होता । उसमें रागादिमलका अभाव होनेसे वह अमल है । उसमें जरा रोगका भय न होनेसे वह अजर है । रोगका अभाव होनेसे अरुज है । भयका अभाव होनेसे अभय है पुनर्भव न होनेसे अभव है । उसके साथमें दुःख न होनेसे ऐकान्तिक है । अनन्तकाल तक रहनेसे आत्यन्तिक है - ऐसा वह अव्याबाधरूप सुख होता है ।।२१४७||
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गा० - सिद्धों में शब्दादि विषयोंसे कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि सिद्धोंको भूख प्यास आदि बाधा नहीं होती तथा विषयोंके उपभोगके कारण राग आदि भी नहीं है || २१४८||
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गा० – इसीसे सब प्रकारकी क्रियाओंसे रहित सिद्धों में बोलना, चलना-फिरना तथा विचारना आदि भी नहीं है || २१४९ ॥
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