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विजयोदया टोका जह वा अग्गिस्स सिहा सहावदो चेव होहि उड्ढगदी ।
जीवस्स तह सभावो उड्ढगमणमप्पवसियस्स ॥२१२४॥ स्पष्टोत्तरगाथा ॥२१२४॥
तो सो अविग्गहाए गदीए समए अणंतरे चेव ।
पावदि जयस्स सिहरं खित्तं कालेण य फुसंतो ॥२१२५॥ 'तो सो अविगहाए' ततोऽसावविग्रहया गत्या अनंतरसमय एव जगतश्थिखरं प्राप्नोति ॥२१२५।।
एवं इहइं पजहिय देहतिगं सिद्धखेत्तमुवगम्म ।
सव्वपरियायमुक्को सिज्झदि जीवो सभावत्थो ॥२१२६॥ ‘एवं इहई' एवमिह देहत्रिकं विहाय सिद्धक्षेत्रमुपगम्य सर्वप्रचारविमुक्तः सिध्यति जीवः स्वभावस्थः ॥२१२६॥ तस्याधःस्थानमाचष्टे
ईसिप्पन्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मि सीदाए ।
धुवमचलमजरठाणं लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो ॥२१२७॥ 'ईसिप्पन्भाराए' ईषत्प्राग्भाराया उपरि न्यनयोजने ध्रुवमचलं स्थानं लोकशिखरमास्थितः सिद्धः ॥२१२७॥
प्रयोगसे आत्मा ऊपरको जाता है ॥२१२३॥
गा०–अथवा जैसे आगकी लपट स्वभावसे ही ऊपरको जाती है वैसे ही कर्मरहित स्वाधीन आत्माका स्वभाव ऊर्ध्वगमन है ॥२१२४॥
___ गा०-कर्मों का क्षय होते ही वह मुक्त जीव एक समयवाली मोड़े रहित गतिसे सात राजुप्रमाण आकाशकं प्रदेशोंका स्पर्श न करते हुए अर्थात् अत्यन्त तीव्रवेगसे लोकके शिखरपर विराजमान हो जाता है ॥२१२५॥
गा०-इस प्रकार इसी लोकमें तैजस, कार्मण और औदारिक शरीरोंको त्यागकर सब प्रकारके प्रचारसे मुक्त हुआ जीव, सिद्धिक्षेत्रमें जाकर अपने टंकोत्कीर्ण ज्ञापक भाव स्वभावमें स्थित होकर मुक्त हो जाता है ।।२१२६।।
गा०-उस सिद्धिक्षेत्रके नीचे स्थित आठवीं पृथिवीको कहते हैं-ईषत्प्राग्भार नामकी आठवीं पृथ्वीके कुछ ऊपर एक योजन पर लोकका शिखर स्थित है जो ध्रुव, अचल और अजर है । उसपर सिद्ध जीव तिष्ठता है ॥२१२७॥
विशेषार्थ-आठवीं पृथिवीका नाम ईषत्प्राग्भार है। मध्यमें उसका बाहुल्य आठ योजन है । दोनों ओर क्रमसे हीन होता गया है। अन्तमें अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अत्यन्त सूक्ष्म बाहुल्य रह जाता है । इस तरह ऊपरको उठे हुए विशाल गोल श्वेत छत्रके समान उसका आकार है। उसका विस्तार पैंतालीरा लाख योजन है। उसके ऊपर तीन वातवलय हैं। उनमेंसे तीन
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