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विजयोदया टीका सूक्ष्मया लेश्यया सूक्ष्मक्रियया बन्धकस्तदासौ सूक्ष्मक्रियं ध्यानं ध्याति ॥२११३॥
सुहुमकिरिएण झाणेण णिरुद्ध सुहुमकायजोगे वि।
सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ॥२११४॥ 'सुहुमकिरियेण' तेन ध्यानेन निरुद्धे सूक्ष्मकाययोगे निश्चलप्रदेशोऽबन्धको भवति । बंधनिमित्तानामभावात् ॥२११४॥
माणसगदितज्जादि पज्जत्तादिज्जसुभगजसकित्तिं ।
अण्णदरवेदणीयं तसबादरमुच्चगोदं च ।।२११५॥ . माणुसर्गाद' मनुष्यगति पञ्चेन्द्रियजाति, पर्याप्तिमादेयसुभगं, यशस्कीर्तिमन्यतरवेदनीयं, त्रसवादरं, उच्चर्गोत्रं च वेदयते ॥२११५॥
मणुसाउगं च वेदेदि अजोगी होदण चेव तक्कालं ।
तित्थयरणामसहिदो' ताओ वेदेदि तित्थयरो ॥२११६॥ मनुष्यायुश्च वेदयते अयोगी भूत्वा तीर्थकरनामसहितास्तीर्थकरो वेदयते ।।२११६।।
देहतियबंधपरिमोक्खत्थं तो केवली अजोगी सो ।
उवयादि समुच्छिण्णकिरियं तु झाणं अपडिवादी ॥२११७|| देहतिय देहत्रिबन्धपरिमोक्षार्थं समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिध्यानं ध्याति ॥२११७॥
सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमज्झाणेण । .
अणुदिण्णाओ दुचरिमसमये सव्वाओ पयडीओं ॥२११८॥ ___ गा०-सूक्ष्म लेश्याके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे वह सातावेदनीय कर्मका बन्ध करता है तथा सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरे शुक्लध्यानको ध्याता है ॥२११३॥
गा०-उस सूक्ष्मक्रिय नामक शुक्लध्यानके द्वारा सूक्ष्म काययोगका निरोध करके वह शीलोंका स्वामी होता है तथा आत्माके प्रदेशोंके निश्चल हो जानेसे उन्हें कर्मबन्धन नहीं होता, क्योंकि कर्मबन्धके निमित्तोंका अभाव है ॥२११४||
गा०-उस समय अयोगकेवली होकर वह मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जगति, पर्याप्ति, आदेय, सुभग, यशःकीति, साता या असातावेदनीय, त्रस, बादर, उच्चगोत्र और मनुष्यायु इन ग्यारह कर्म प्रकृतियोंके उदयका भोग करते हैं। और यदि तीर्थंकर होते हैं तो तीर्थंकर सहित बारह प्रकृतियोंका अनुभवन करते हैं ।।२११५-१६।।
गा०-उसके पश्चात् अयोगकेवली परम औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंके बन्धनसे छूटनेके लिये समुच्छिन्नक्रिय अप्रतिपातो नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं इसका दूसरा नाम व्युपरतक्रिया निवर्ती है ॥२११७॥
१.-दो जातो जो वेदि तित्थयरो-आ०, अ०।
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