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भगवती आराधना
'इडिढमतुलं विगुश्विय' ऋद्धिमतुलां विकृत्य किन्नरकिंपुरुषादिदेवकन्या यद्यप्युपलालनं कुर्वन्ति तदाप्यसो न विस्मयं याति ॥२०४०।।
सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदिवि तमुवणमेज्ज ।
तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि ॥२०४१॥ 'सम्वो पोग्गलकाओ' सर्व पुद्गलद्रव्यं दुःखतया यदि तमभिहन्ति तथापि तस्य न जायते ध्यानस्यान्यथावृत्तिः ॥२०४१॥
सव्वो पोग्गलकाओ सोक्खत्ताए जदि वि तमुवणमेज्ज ।
तघ वि हु तस्स ण जायदि उझाणस्स विसोत्तिया को वि ।।२०४२।। स्पष्टोत्तरगाथा ॥२०४२।। .
सच्चित्ते साहरिदो तत्थ उवेक्खदि वियत्तसव्वंगो ।
उवसग्गे य पसंते जदणाए थंडिलमुवेदि ॥२०४३।। 'सच्चित्ते साहरिदो' व्याघ्रादिभिः सचित्ते निक्षिप्तः स तत्रैवोपेक्षते त्यक्तसर्वाङ्गः । उपसर्गे प्रशांते यत्नेन स्थण्डिलमुपैति ॥२०४३।।
एवं उवसग्गविधि परीसहविधिं च सोधिया संतो। .
मणवयणकायगुत्तो सुणिच्छिदो णिज्जिदकसाओ ॥२०४४॥ 'एवं उवसग्गविधि' एवमुपसर्गान् परिषहांश्च सहमानस्त्रिगुप्तः सुनिश्चितो निजितकषायः ॥२०४४॥
इहलोए परलोए जीविदमरणे सुहे य दुक्खे य ।
णिप्पडिबद्धो विरहदि जिददुक्खपरिस्समो धिदिमं ॥२०४५।। गा०—किन्नर किंपुरुष जातिके व्यन्तर देवोंकी देवांगनाएँ अतुल ऋद्धिरूप विक्रियाके द्वारा यदि उसे लुभाती हैं तो भी वह उनके लोभमें नहीं आता ॥२०४०॥
गा०-यदि तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गल द्रव्य दुःखरूप परिणत होकर उसे दुःखी करें तब भी वह ध्यानसे विचलित नहीं होता ॥२०४१।।
गा०.-तथा तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गलद्रव्य सुखरूप परिणत होकर उसे सुखी करें तब भी वह ध्यानसे विचलित नहीं होता ॥२०४२॥
गा०-यदि व्याघ्र आदिके द्वारा वह हरित तृणोंसे भरे हुए प्रदेशमें डाल दिया जाता है तो अपने शरीरका मोहत्याग शान्तभावसे वहीं स्थिर रहता है और उपसर्ग दूर होनेपर सावधानता पूर्वक तृणरहित भूमिप्रदेश में चला आता है ।।२०४३।।
गा०-इस प्रकार उपसर्गों और परीषहोंको सहन करते हुए वह मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्तिका पालन करता है । तथा स्थिरतापूर्वक कषायोंको जीतता है ।।२०४४।।
गा०-दुःख और परिश्रमपर विजय प्राप्त करने वाला वह धीर वीर क्षपक इस लोक,
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