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विजयोदया टीका
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'इहलोगे परलोगे' इह परत्र च जीविते मरणे सुखे दुःखे च अप्रतिबन्धो विहरति जित दुःखपरिश्रमः घृतिमान् ॥२०४५ ।।
वायणपरियदृणपुच्छणाओ मोचूण तघय धम्मथुदिं । सुत्तत्थ पोरिसीसु विसरेदि सुत्तत्थमेयमणो ||२०४६ ॥
'वायणपरियहणपुच्छणाओ' वाचनां परिवर्तनं, प्रश्नं च मुक्त्वा च तथा धर्मोपदेशं सूत्रस्यार्थस्य वा स्मरत्येकचित्तः || २०४६ ॥
एवं अट्ठवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो ।
जदि आधच्चा णिद्दा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णों ॥। २०४७ ||
'एवं अट्ठवि जामे' एवमेवाष्टसु यामेषु निरस्तशयन क्रियो घ्यात्येक चित्तः, यद्याहत्य निद्रा भवेत् तत्र अप्रतिज्ञोऽसौ || २०४७॥
सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओं ।
जम्हा मसाणमज्झे तस्स य झाणं अपडिसिद्ध ॥२०४८||
'सज्झायका ? पडिलेहणादिकाओ' स्वाध्यायकाल प्रतिलेखनादिकाः क्रिया न सन्ति यस्मात् श्मशानमध्येऽपि तस्य ध्यानं न प्रतिषिद्धं । २०४८ ॥
आवासगं च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहिं कमदि ।
उवकरणंपि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए || २०४९ ।।
'आवासगं च कुणदे' आवश्यकं च करोति कालद्वयेऽपि यस्मिन्काले प्रवर्तते, उपकरणप्रतिलेखनमपि यत्नेन कालद्वये करोति ॥ २०४९||
परलोक, जीवन, मरण, सुख और दुःखमें रागद्व ेष रहित होकर विहरता है अर्थात् न जीवन आदिसे राग करता है और मरण आदिसे द्वेष करता है || २०४५।।
गा॰—स्वाध्यायके पाँच भेदोंमेंसे वाचना, आम्नाय, पृच्छना और धर्मोपदेशको त्यागकर वह अस्वाध्यायकालमें भी एकाग्रमनसे सूत्रके अर्थका ही अनुचिन्तन करता है । अर्थात् सतत अनुप्रेक्षारूप स्वाध्यायमें ही लीन रहता है || २०४६||
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गा० - इस प्रकार वह दिन रातके आठों पहरोंमें निद्राको त्यागकर एकाग्र मनसे ध्यान करता है । यदि कभी बलात् निद्रा आ जाती है तो सो लेता है || २०४७||
गा० - अन्य मुनियोंकी तरह न तो उनका स्वाध्यायकाल ही नियत होता है और न उन्हें प्रतिलेखना आदि क्रिया करना ही आवश्यक होता है । उनके लिये स्मशानमें भी ध्यान करना निषिद्ध नहीं है || २०४८||
गा०- - किन्तु दिन रातमें जब जो आवश्यक करनेका विधान है वह अवश्य करते हैं और सावधानता पूर्वक दोनों कालोंमें अपने उपकरणोंकी प्रतिलेखना भी करते हैं || २०४९||
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