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भगवती
'वारियमणंतरायं होदि' नितिन कोर्स
पिये
सति विघ्नो भवति, न तथा तस्य निरवशेषक्षयं । 'अनंत' कपातीनां अतीत महामुनेविघ्ने विनष्टे ॥ २१००||
तो सो वेदयमाणो विहरइ सेसाणि ताव कम्माणि ।
जावस मत्ती वेदिज्जमा णस्साउगस्स भवे ॥ २१०१ ॥
'तो सो वेदयमाणो' केवलज्ञानादिपरिप्राप्त्यनंतरकालं वेदयमानो विहरति, 'सेसाणि ताव कम्माणि अवशिष्टानि तावत्कर्माणि । 'जावसमत्ती' यावत्परिसमाप्तिः । 'वेदिज्जमाणस्स आउगस्स भवे' अनुभूयमानस्य मनुष्वायुषो भवेत् ॥ २१०१ ॥
दंसणणाणसमग्गो विरहदि उच्चावयं तु परियायं ।
जोगणिरोधं पारभदि कम्मणिल्लेवणट्ठाए ॥२१०२ ।।
'दंसणणाणसमग्गो' क्षायिकेन ज्ञानेन दर्शनेन च समग्रो, विहृत्य 'उच्चावयं परयायं' उच्चावचं पर्यायं, चारित्रमभिवर्द्धयन् योगनिरोधं प्रारभते, कर्मणामघातिनामपहरणार्थः ॥ २१०२ ॥
उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्म केवली जादा | वच्चति समुग्धादं सेसा भज्जा समुग्धादे || २१०३॥
'उक्कस्सगेण' उत्कर्षेण षण्मासावशेषे आयुषि जाते केवलिनो जातास्ते समुद्धातमुपयाति । शेषाः समुद्धाते भाज्याः || २१०३ ॥
रहित अनन्तवीर्य होता है । अर्थात् क्षयोपशमिक वीर्य में तो वीर्यान्तरायका उदय होनेपर विघ्न आ जाता है । किन्तु समस्त वीर्यान्तरायका क्षय होनेपर प्रकट हुए अनन्त वीर्यं में कोई विघ्न नहीं आता ।।२१०० ॥
गा०—केवल ज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर जबतक शेष कर्मों की तथा अनुभूयमान मनुष्यायुकी समाप्ति नहीं होती तब तक वह केवल ज्ञानी विहार करता ।।२१०१ ।।
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गा० - क्षायिक ज्ञान और क्षायिक दर्शनसे परिपूर्ण वह केवल ज्ञानी चारित्रको बढ़ाता हुआ उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्वकोटि तक और जधन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र काल तक विहार करता है । फिर अघातिकर्मो को नष्ट करनेके लिये सत्यवचन योग, अनुभयवचन योग, सत्यमनोयोग अनुभय मनोयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग तथा कार्मण काययोगका निग्रह प्रारम्भ करता है ॥२१०२||
गा०
10 – उत्कर्ष से छह मास आयु शेष रहनेपर जो केवल ज्ञानी होते हैं वे अवश्य समुद्धातजीवके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर दण्ड आदिके आकार रूपसे निकलना - करते हैं । शेष समुद्धात करते भी हैं और नहीं भी करते, उनके लिये कोई नियम नहीं है ॥२१०३ ॥
१. माण आउस्स कम्मस्स -अ० आ० ।
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