________________
विजयोदया टीका
८८३ 'उवएसो पुण आइरियाण' उपदेशः पुनः आचार्याणां इङ्गिणीगतोऽपि धर्म कथयति देवमनुष्यैर्वा पृष्टः । कथं कथयति छिन्नकथं प्रवर्तनेन महता ॥२०५४॥
एवमधक्खादविधिं साधित्ता इंगिणी धुदकिलेसा ।
सिझंति केइ केई हवंति देवा विमाणेसु ॥२०५५।। 'एवमक्खादविधि' एवं यथाख्यातक्रमेण इङ्गिणी प्रसाध्य निरस्तक्लेशाः केचित्सिध्यन्ति, केचिद्वैमानिकदेवा भवन्ति ॥२०५५।।
एदं इंगिणिमरणं वाससमासेण वण्णिदं विधिणा ।
पाओगमरणमित्तो समासदो चेव वण्णेसिं ॥२०५६॥ स्पष्टार्था गाथा । इङ्गिणी ॥२०५६।।
पाओवगमणमरणस्स होदि सो चेव उवक्कमो सव्वो।
वुत्तो इंगिणिमरणस्सुक्कमो जो सवित्थारो ॥२०५७।। स्पष्टार्थः ।।२०५७॥
णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो ।
आदपरपओगेण य पडिसिद्ध सव्वपरियम्मं ॥२०५८॥ 'गरि तणसंथारो' णवरं तृणसंस्तरः प्रायोपगमनगतस्य प्रतिषिद्धः, आत्मपरप्रयोगेण यस्मात्प्रतिषिद्धः सर्वः प्रतीकारः । स्वपरसंपाद्यप्रतीकारापेक्षः भक्त.प्रत्याख्यानविधिः, परनिरपेक्षमात्मसंपाद्यप्रतीकारर्मिगिणीमरणं, सर्वप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनमित्यमीषां भेदः ॥२०५८॥
गा०-अन्य आचार्यो का मत है कि इंगिणीमरण करते हुए भी क्षपक देवों या मनुष्योंके द्वारा पूछे जानेपर थोड़ासा धर्मोपदेश भी करता है किन्तु अधिक नहीं करता ॥२०५४॥
गा०-इस तरह ऊपर कहे अनुसार इंगिणीमरणकी साधना करके कोई तो समस्त क्लेशोंसे छूटकर मुक्त हो जाते हैं और कोई मरकर वैमानिकदेव होते हैं ॥२०५५।।
गाo-इस इंगिणीमरणका विस्तार और संक्षेपसे विधिपूर्वक कथन किया। आगे प्रायोपगमनका संक्षेपसे कथन करेंगे ॥२०५६।।
गा०-ऊपर इंगिणीमरणकी जो विस्तारसे विधि कही है वही सब विधि प्रायोपगमन मरणकी होती है ॥२०५७||
गा०—किन्तु इतना विशेष है कि प्रायोपगमनमें तृणोंके संथरेका-तृणशय्याका निषेध है । क्योंकि उसमें स्वयं अपनेसे और दूसरोंसे भी सब प्रकारका प्रतीकार करना कराना निषिद्ध हैं ।।२०५८॥
टी० - भक्तप्रत्याख्यानमें तो अपनी सेवा स्वयं भी कर सकता है और दूसरोंसे भी करा सकता है । इंगिणीमें अपनी सेवा स्वयं कर सकता है, दूसरोंसे नहीं करा सकता। किन्तु
१. छिन्नकथं प्रवर्तितेन -आ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org