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विजयोदया टोका इगविगतिगचदुरिंदियणामाई तय तिरिक्खगदिणामं ।
खवयित्ता मज्झिल्ले खवेदि सो अट्ठवि कसाए ॥२०९०॥ 'इगविग' एकद्वित्रिचतुरिंद्रियजातीः, तिर्यग्गति, अप्रत्याख्यानचतुष्कं, प्रत्याख्यानचतुष्कं च क्षपयति ॥२०९०॥
तत्तो णपुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं ।
कोचं माणं मायं लोमं च खवेदि सो कमसो ॥२०९१॥ 'तत्त. गपुंसं' ततो नपुंसक वेदं, स्त्रीवेदं, हास्यादिषट्कं, पुंवेदं, संज्वलनक्रोधमानमाया:क्षपयति । पश्चाल्लोभसंज्वलनं ॥२०९१॥
अध लोभसुहुमकिट्टि वेदंतो सुहुमसंपरायत्तं ।
पावदि पावदि य तधा तण्णामं संजमं सुद्धं ॥२०९२॥ 'अघ लोभसुहमकिट्टि' अथ पश्चाद्वादरकृष्टेरुत्तरकालं लोभसूक्ष्मकृष्टि वेदयमानः । 'सुहमसंपरायत्तं पावदि' सूक्ष्मसापरायतां प्राप्नोति । 'पावदि य तधा' प्राप्नोति च तथा तन्नामकं संयमं शुद्धं सूक्ष्मसांपरायतां अधिगच्छति ॥२०९२॥
तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्टीसु । एय'त्तवितक्कावीचारं तो ज्झादि सो ज्झाणं ॥२०९३॥
आतप, उद्योत, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, दो इन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गति, इन सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करके मध्यकी आठ कषाय अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभका क्षय करता है ।।२०८८-२०९०॥
गा-फिर क्रमसे उसी नवम गुणस्थानमें नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा, पुरुषवेद और संज्वलन, क्रोध मान मायाका क्षय करता है। अन्तमें संज्वलन लोभका क्षय करता है ।।२०९१।।
विशेषार्थ-क्षयका क्रम इस प्रकार है-हास्यादि छह नोकषायोंको पुरुषवेदमें क्षेपण करके नष्ट करता है । पुरुषवेदको क्रोध संज्वलन में क्षेपण करके क्षय करता हैं। इसी प्रकार क्रोध संज्वलनको मान संज्वलनमें मानसंज्वलनको माया संज्वलनमें और माया संज्वलनको लोभसंज्वलनमें क्षेपण करके क्षय करता है। अन्तमें बादर कृष्टिके द्वारा लोभसंज्वलन को कृश करके सूक्ष्म लोभ संज्वलन कषाय शेष रहती है ॥२०९१।।
गा-बादर कृष्टिके पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभका वेदना करता हुआ दसवे सूक्ष्मसाम्पराय नामक गुणस्थानको प्राप्त करता है और वहाँ उसी सूक्ष्मसाम्पराय नामक संयमको प्राप्त करता है ।।२०९२।।
१. एयत्तं सवियक अविचारं सो वहिं झादि-अ० आ० । ११२
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